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________________ आदमी के हाथ ही आदमी के हाथ में कहां हैं? आदमी के हाथ भी परमात्मा के हाथ में हैं। आदमी कुछ अलग थलग थोड़े ही है ! तुम एक क्षण भी तो अलग होकर नहीं हो सकते। यह श्वास बाहर गई, भीतर आई तो तुम हो। यह सूरज की किरण तुम्हारी देह पर पड़ी और इसने उत्तप्त किया तो तुम हो। यह भोजन आज लिया और शरीर में ऊर्जा बनी तो तुम हो। एक क्षण को तुम बाहर से लेन-देन बंद कर सकते? एक क्षण को तुम तोड़ सकते यह सेतु, जो हजार-हजार तरह से फैले हुए हैं? एक क्षण को तुम अलग थलग हो सकते हो ? एक क्षण को कह सकते कि बिलकुल मैं अलग थलग, टूटा समस्त से खड़ा हूं। एक क्षण को भी नहीं हो सकते। तुम्हारे हाथ भी तुम्हारे हाथ में कहां हैं? तुम्हारे हाथ भी परमात्मा के हाथ में हैं। जिन्होंने जाना है उन्होंने एक बात जानी कि हम थे ही नहीं और नाहक उछलकूद मचा रहे थे। थे जरा भी नहीं और बड़ा शोरगुल मचा रहे थे। जैसे लहरें सागर पर बड़ा शोरगुल मचाती हैं और जरा भी हैं नहीं है तो सागर, लहर कहां है? लहर का कोई होना होना है? तुम लहर को सागर से अलग कर सकोगे? जब अलग नहीं कर सकते तो है ही नहीं । हम अलग होकर नहीं हो सकते तो हमारा होना नहीं है । जाननेवालों को एक प्रतीति होती जाती है रोज-रोज कि मैं नहीं हूं, परमात्मा है। एक दिन ऐसी घडी आती है कि मैं बिलकुल शून्य हो जाता है। वही तो अष्टावक्र ने कहा. ' अनिर्वचनीय स्वभाव और स्वभाव से बिलकुल शून्य । ' जिसका निर्वचन न हो सके ऐसे स्वभाव का अनुभव होता है और साथ ही यह भी अनुभव होता है कि मैं तो अब रहा ही नहीं । होश से तुम इसे छोड़ दो अगर परमात्मा के हाथों में तो चमत्कार घटने शुरू हो जाते हैं। तुमने अगर अपने को ही अपने हाथों में पकडे रखा तो तुम क्षुद्र रह जाओगे। अपने ही कारण व्यर्थ ही छोटे रह गये। जब कि परमात्मा के पूरे हाथ तुम्हारे हाथ हो सकते थे, तब तुमने अपने छोटे -छोटे हाथों पर भरोसा किया। जब तुम निमित्त हो सकते थे, तुम कर्ता बनकर बैठ गये और वहीं तुम सिकुड़ गये। यों तो मेरा तन माटी है, तुम चाहो कंचन हो तृषित अधर कितने प्यासे हैं तृष्णा प्रतिपल बढ़ती जाती छाया भी तो छूट रही है विरह दुपहरी चढ़ती जाती रोम-रोम से निकल रही है जलती आहों की चिनगारी यों तो मेरा मन पावक है, तुम चाहो चंदन हो जाये मेरे जीवन की डाली को भायी कटु शूलों की माया
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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