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________________ आज अचानक अरमानों पर सारे जग का पतझड़ छाया असमय वायु चली कुछ ऐसी पीत हुई चाहो की कलियां यों तो सूखी मन की बगिया, तुम चाहो नंदन हो जाये अब तो सांसों का सरगम भी खोया खोया-सा लगता है अनगिन यत्न किये मैंने पर राग न कोई भी जगता है साध मीड़ में खिंचने पर भी स्वरसंधान नहीं हो पाता यों तो टूटी-सी मनवीणा, तुम चाहो कंपन हो जाये मेरा क्या है इस धरती पर सिर्फ तुम्हारी ही छाया है चांद-सितारे तृण तरु-पल्लव सिर्फ तुम्हारी ही माया है शब्द तुम्हारे, अर्थ तुम्हारे, वाणी पर अधिकार तुम्हारा यों तो हर अक्षर क्षर मेरा, तुम चाहो वंदन हो जाये प्रभु के स्पर्श से सब स्वर्ण हो जाता है-मिट्टी भी। सोयी वीणा जाग उठती है। संगीत का आविर्भाव हो जाता है। जहां सब ताप ही ताप था वहां सब चंदन हो जाता है। लेकिन तुम छोड़ो उसके हाथ में। मनुष्य अपने ही कारण परेशान है। कोई तुम्हें परेशान किये नहीं। तुम व्यर्थ ही सारा बोझ अपने सिर पर लेकर चल रहे हो। जो बोझ उसके सिर पर है वह भी तुम अपने सिर पर लेकर चल रहे हो। उस कारण तुम कितने टूट-फूट गये हो! कितने जराजीर्ण कितने थके -मांदे! पैर उठाये नहीं उठते इतने थक गये हो। फिर भी मगर बोझ को तुम ढोये चले जाते हो। रखो। बोझ को उतारो। बोझ भी उसका है, तम भी उसके हो। समग्र से व्यक्ति अलग नहीं है समष्टि का अंग है। ऐसी प्रतीति गहन होती जाये, यही संन्यास है। ऐसा भाव रोज-रोज प्रगाढ होता जाये। यों तो मेरा तन माटी है, तुम चाहो कंचन हो जाये यों तो मेरा मन पावक है, तुम चाहो चंदन हो जाये यों तो सूखी मन की बगिया, तुम चाहो नंदन हो जाये साध मीड़ में खिंचने पर भी स्वरसंधान नहीं हो पाता खींच-खींचकर चेष्टा कर-करके भी कहां स्वरसंधान हो पाता है? यों तो टूटी-सी मनवीणा, तुम चाहो कंपन हो जाये शब्द तुम्हारे, अर्थ तुम्हारे, वाणी पर अधिकार तुम्हारा यों तो हर अक्षर क्षर मेरा, तुम चाहो वंदन हो जाये तुम शून्य से बोलो तो वेदों का जन्म होता है। तुम अहंकार से बोलो तो वेद भी पढ़ो, तोता-रटत हो जाते हैं। तुम उसे बोलने दो तो तुम्हारा हर शब्द उपनिषद है। और यों फिर तुम उपनिषद कंठस्थ
SR No.032114
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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