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________________ लडने में, धूप में खड़े होकर मारो, कांटों पर लेटकर मारो। कैसे मारते हो यह अलग बात, लेकिन फिर कोड़े मारने पड़ते हैं। ___महावीर तो कहते हैं, साधु जा सकता है। अष्टावक्र और भी ज्यादा शुद्ध हैं। वे तो कहते हैं, साधु जा ही नहीं सकता। तुम इसे समझना। इसीलिए तो मैं कहता हूं, अष्टावक्र जैसा क्रांतिकारी द्रष्टा नहीं हुआ। अष्टावक्र कह रहे हैं : क्व निरोधो विमूढ़स्य यो निर्बधं करोति वै। कितना ही करो निरोध, निरोध से निरोध नहीं होता। कितना ही साधो, साधने से कुछ नहीं सधता। चेष्टा से कुछ हाथ नहीं आता। 'स्वयं में रमण करनेवाले धीरपुरुष के लिए यह चित्त का निरोध स्वाभाविक है।' यह तो उसी को होता है जो केवल समझ, इशारे से रूपांतरित हो जाता है—बोधमात्र से; प्रज्ञामात्र से; और अपने में रमण करने लगता है। तो बैठ जाओ कभी-कभी; निरोध की कोई जरूरत नहीं है। मन आयेगा, मन पुराने जाल फैलायेगा। फिर आ गये राजाधिराज चाबक घमाते? वह आयेगा। तम देखते रहना। लडना मत. ल में निरोध है। हटाना मत, हटाने में निरोध है। विरोध मत करना, विरोध ही तो निरोध है। तुम देखना। घुमाने दो चाबुक। आने दो मन को, लाने दो सब जाल। फैलाने दो पुरानी सब व्यवस्थायें, करने दो अपना इंतजाम। तुम शांत बैठे रहना। तुम सिर्फ साक्षी रहना। तुम कहना, हम देखेंगे। बस देखेंगे और कुछ न करेंगे। तू खड़ी कर अप्सरायें सुंदर, हम देखेंगे। तू फैला लोभ-काम के जाल, हम देखेंगे। हम कुछ करेंगे नहीं। हम अडिग देखते रहेंगे। हम नजर पैनी रखेंगे। हम नजर साफ रखेंगे। न तो तेरे साथ चलेंगे, न तुझसे लड़ेंगे। · ऐसी दशा में धीरे-धीरे मन अपने आप हार जाता है, अपने आप सो जाता है, अपने आप खो जाता है। और ऐसी ही साक्षी दशा में तुम्हारा स्वयं में पदार्पण होता है, आत्मरमण शुरू होता है। स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदाऽसावकृत्रिमः। • और तब एक निरोध पैदा होता है जो अकृत्रिम है, जो स्वाभाविक है, जो सहज है; जो तुम्हारी छाया की तरह तुम्हारे पीछे आता। ऐसा समझो, निरोध करनेवाला निषेधात्मक है, वह लड़ता है। स्वभाव का अर्थ है, बिना लड़े अपने भीतर के सुख में डूब जाना। वह सुख ऐसा प्रीतिकर है कि उस सुख को जान लेने के बाद मन का कोई प्रलोभन काम नहीं करता। अब जिसके हाथ में हीरे-जवाहरात आ गये वह कंकड़-पत्थर के लोभ में थोड़े ही पड़ेगा। और जिसने अमृत चख लिया, अब वह विष के धोखे में थोड़े ही आयेगा। और जिसने परम सौंदर्य जान लिया, अब वह हड्डी, मांस, मज्जा के सौंदर्य में थोड़े ही उलझेगा। और जो अपने परम पद पर विराजमान हो गया, अब तुम्हारी छोटी-मोटी कुर्सियों के लिए थोड़े ही लड़ेगा। और जिसने राज्यों का राज्य पा लिया, साम्राज्य पा लिया स्वयं का, अब वह तुम्हारे पदों के लिए थोड़े ही आकांक्षा करेगा, तुम्हारे धन की थोड़े ही चाह करेगा। बात खतम हो गई। निरोध होगा. लेकिन सहज. अकत्रिम। 'कोई भाव को माननेवाला है और कोई कुछ भी नहीं है ऐसा माननेवाला है; वैसे ही कोई दोनों दृश्य से द्रष्टा में छलांग 1751
SR No.032113
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages436
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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