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________________ नाच रहा है। सुनो इसकी झनकार, जगत के पैरों में बंधे घूंघर की आवाज सुनो! तो मीरा ठीक कहती है: : पद घुंघरू बांध नाची! यह चौथी अवस्था हुई। चैतन्य नाचने लगे; मीरा नाचने लगी। बाउल नाचते हैं, पागल हो नाचते हैं। भीतर कोई बचा नहीं, भीतर शून्य हो गये। साक्षी तो शून्य पर ले आता है : जब तुम नाचोगे तब पूर्ण होओगे। साक्षी तो तुम्हें कोरा कर देता है, खाली कर देता है। तुम गये। अब परमात्मा उतरेगा तो नाचेगा । ध्यान रखना। या फिर परमात्मा को रोकना, उतरने मत देना। इसलिए जैन परमात्मा को इनकार करते हैं। वह लीला से बचने की व्यवस्था है। नहीं तो तुम शून्य हो गये; अब क्या करोगे ? अब परमात्मा उतरेगा, और जैसा कि उसकी आदत है नाचने की, वह नाचेगा । वह गीत गायेगा; वह हजार खेल करेगा। लीला उसका स्वभाव है। वह माया रचेगा । माया उसकी छाया है। तो अगर तुम डर गये तो अटक गये। साक्षीभाव में एक तरह का सूखापन रह जायेगा; रसधार न बहेगी, फूल न खिलेंगे, हरियाली न उगेगी, नये-नये अंकुर न आएंगे, वसंत की ऋतु न आएगी । साक्षी तो एक तरह का पतझड़ है; वह पतझड़ की अवस्था है। फिर वसंत तो आने दो। पतझड़ उसी की तैयारी थी; उस पर रुक मत जाना। हां, पतझड़ में भी कभी-कभी वृक्ष सुंदर लगते हैं। नग्न खड़े वृक्ष, आकाश की पृष्ठभूमि में, कभी नग्न वृक्षों के पीछे उगता सूरज, उनकी नंगी शाखायें फैली आकाश में, कभी सुंदर लगती हैं। माना, उनका भी अपना सौंदर्य है। लेकिन वह सौंदर्य रुकने . जैसा नहीं हैं। आने दो पत्ते, उगने दो नये पल्लव, फिर गाने दो पक्षियों को, बनाने दो घोंसलों को, लेकिन अब बड़े और ढंग से बनेगी बात। अब कोई चिंता न होगी, अब कोई तनाव न होगा। यह सब सहज होगा । मेरी सीमायें बतला दो यह अनंत नीला नभमंडल देता मूक निमंत्रण प्रतिपल मेरे चिर चंचल पंखों को इनकी परिमिति परिधि बता दो मेरी सीमायें बतला दो आदमी सदा सीमा चाहता है; कहीं न कहीं सीमा आ जाये। यह आदमी की चाह सीमा की उसे रोक लेती है। मैं तुमसे कहता हूं; तुम असीम हो, तुम्हारी कोई सीमा नहीं है । आकाश की सीमा तुम्हारी सीमा है - अगर आकाश की कोई सीमा हो । आकाश की कोई सीमा नहीं है; तुम्हारी भी कोई सीमा नहीं है। तुम कहीं रुकना मत। तुम जहां रुके वहीं सीमा बन जाएगी! तुम चलते ही रहना, तुम बहते ही रहना। तुम्हारी कोई सीमा नहीं है। तुम असीम से असीम की ओर, पूर्ण से पूर्ण की ओर चलते ही रहना । यह यात्रा अनंत है। परमात्मा यात्रा है। इसमें बहुत पड़ाव पड़ते हैं, पर यात्रा रुकती नहीं । और आगे, और आगे! और जो आखिरी घटना है वह घटना है लीला की । जब तुम्हें यह दिखाई पड़ता है कि सब खेल है तो तनाव खो जाता है । फिर तुम खेल की तरह लीन हो जाते हो । फिर तुम्हारे भीतर प्रेम, करुणा, साक्षी और उत्सव-लीला 65
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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