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बुरा नहीं है ईसाइयत में कुछ भी । यह मैं कह नहीं रहा हूं। ध्यान से सुनना। लेकिन यात्रा वहां समाप्त नहीं होती; शुरू होती है। और जिसने समझ लिया कि यहां समाप्त हो गई, वह अटक गया। खूब करो सेवा, लेकिन सेवक बनकर अगर समाप्त हो गये तो तुमने कुछ पाया नहीं । ध्यानी कब बनोगे ?
गांधी के शिष्य विनोबा कहते हैं, सेवा धर्म है। यह जरा गलत पर्याय है। यह तो गलत जोड़ है, गलत गणित है। मैं कहता हूं, धर्म सेवा है, पर सेवा धर्म नहीं । धार्मिक व्यक्ति सेवा कर सकता है, लेकिन सेवा ही करने से कोई धार्मिक नहीं हो जाता। सेवा बड़ी छोटी बात है। तो धार्मिक व्यक्ति के जीवन में सेवा भी हो, यह ठीक है। समझ में आती है बात। लेकिन कोई सिर्फ सेवक हो गया हो तो धार्मिक हो गया तो तुमने धर्म को बड़े संकीर्ण दायरे में बंद कर दिया। तब तो फिर नास्तिक भी अंगर सेवा करता हो तो धार्मिक हो गया। क्योंकि सेवा करने के लिए ईश्वर को मानना तो जरूरी नहीं है।
मार के पैर दाबने में कोई ईश्वर की मान्यता बाधा डालती है ? कि ईश्वर को मानोगे तब दाबोगे पैर ! तब तो कम्यूनिस्ट भी धार्मिक है, शायद ज्यादा धार्मिक है। अगर सेवा ही धर्म है तो मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन, स्टेलिन, माओ, ये बड़ी धार्मिक लोग हैं।
लेकिन सेवा पर धर्म को समाप्त करने की बात ही भ्रांत है। धर्म बड़ा है; सेवा एक छोटा अंग बन सकती है। और धर्म के बड़े विस्तार के साथ सेवा जुड़ी हो तो सेवा में भी एक सुगंध होती है।" अन्यथा सेवा में भी कोई अर्थ नहीं रह जाता। बड़े के साथ जुड़ कर छोटा भी महत्वपूर्ण हो जाता है, लेकिन छोटे को ही बड़े करने का दावा करना तो बड़े को भी व्यर्थ कर देना है।
बुद्ध की करुणा सेवा से विराट है, बड़ी है। एक और कदम आगे उठा । अब तुम दूसरे से नहीं बंधे हो; अब तुम मुक्त हो । और तुम्हारे भीतर से मुक्त अहर्निश वर्षा होती है। लेकिन इतने पर ही समाप्त धर्म नहीं हो जाता। आधी यात्रा हो गई, लेकिन अभी आधी बाकी है।
फिर तीसरा चरण है— जो कि करीब-करीब लगता है कि धर्म की अंतिम मंजिल आ गई; लेकिन फिर भी अंतिम नहीं है - साक्षी - भाव। अब न तो दूसरा न मैं, बस दोनों को देखने वाला, दोनों के पार जो अतिक्रमण कर जाता, अनुभवातीत साक्षी, वही रहा। यहां लगता है कि धर्म की आखिरी पराकाष्ठा हो गई। नहीं हुई; अभी एक कदम और बाकी है। अभी वर्तुल पूरा नहीं हुआ। जहां से चले थे, अभी वहीं वापिस नहीं आये तो वर्तुल पूरा नहीं हुआ। स्रोत ही मंजिल है। बीज चला, पौधा बना वृक्ष बना, फूल लगे, फल लगे, फिर बीज आये; तब वर्तुल पूरा हुआ, तब यात्रा पूरी हुई। जहां से चले वहीं आ गये। बच्चा पैदा हुआ, जवान हुआ, बूढ़ा हुआ, हजार-हजार उपद्रवों में पड़ा, और फिर बालवत हो गया; यात्रा पूरी हो गई ।
स्रोत ही मंजिल है। जहां से चले थे वहीं पहुंच जाना है। कहां से चलती है यात्रा ? संसार से, बाजार से, भीड़-भाड़ से । फिर एक दिन तुम उसी भीड़-भाड़ में आ जाओ। भीड़-भाड़ वही रहेगी, तुम ही नहीं रह गये। फिर तुम नाचो ।
अब यह नाच गुणात्मक रूप से और है। इसको मैं उत्सव - लीला कहता हूं। लीला का यही अर्थ होता है। और परमात्मा नाच रहा है। अगर साक्षी पर परमात्मा रुक गया होता तो जगत में इतना नृत्य नहीं हो सकता था। इस रासलीला को देखते हो ? चांद नाच रहा, सूरज नाच रहे, पृथ्वी नाच रही, तारे नाच रहे, पूरा ब्रह्मांड नाच रहा है। किसी गहन अहोभाव में लीन, किसी प्रार्थना में डूबा सारा अस्तित्व
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4