SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुछ करता रहता है, जिसमें उलझा रहे। राम, राम, राम, राम जपता रहता है। दोनों नहीं कर पाते। __ होना तो चाहिए किसी घड़ी में; नहीं तो जगत अर्थहीन है। फिर इसमें कोई प्रयोजन नहीं है; फिर यह एक वितण्डा-जाल है। ए टेल टोल्ड बाय एन इडिएट; फुल आफ फ्यूरी एंड न्वाइज़, सिग्निफाइंग नथिंग। कोई मूर्ख कहता है कहानी; शोरगुल बहुत मचाता है, हाथ-पैर बहुत तड़फड़ाता है, लेकिन अर्थ कुछ नहीं निकलता। फिर इस जगत में कोई परमात्मा नहीं, फिर कोई सत्य नहीं। __इसलिए चौथी बातः उत्सव-लीला। पहुंच गये। योगी रुकने के कारण नहीं नाच पाता था, भोगी भागने के कारण नहीं नाच पाता था। अब न तो भागना रहा, न रुकना रहा। अब न तो तू रहा, न मैं रहा। अब तो सिर्फ ऊर्जा रही; अब इस ऊर्जा को नाचने से कौन रोके? क्यों रोके? कौन है रोकने वाला? अब एक नये ढंग का नृत्य शुरू होता है। इस नृत्य को ही हमने रास कहा है। यह नृत्य बड़ा अनूठा है। इसमें नाचने वाला होता ही नहीं, सिर्फ नाच होता है। इसमें भोगने वाला होता ही नहीं, भोग ही होता है; सिर्फ रस बहता है शुद्ध। और ऐसी दशा में ही तुम परमात्मा हुए। तो जीवन सार्थक हुआ; यात्रा कहीं पहुंची, कोई मंजिल मिली। ___मगर ये चारों एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। तुम्हारी जितनी हिम्मत हो उतना चलना। सबसे कमजोर के लिए ईसाइयत है। वह वहां रुक जाये, दबाता रहे हाथ-पैर मरीजों के, गरीबों को रोटी बांटता रहे; उस तरह के काम में लगा रहे। इसलिए ईसाइयत राजनीति से बहुत दूर नहीं जा पाती, क्योंकि संसार के बहुत करीब है। ईसाइयत वस्तुतः एक तरह की राजनीति ही हो गई है-संसार से बहुत दूर नहीं। . बस एक ही कदम तो; संसार बहुत करीब है। खिंच-खिंच आती है संसार में। इसलिए ईसाइयत धन भी बांटती, दवा भी बांटती, सेवा भी करती और इसी तल पर जीती है। ईसाइयत के पास ध्यान जैसी कोई प्रक्रिया नहीं बची। खो गया ध्यान; समाज-सेवा रह गई। समाज-सेवा बुरी बात नहीं है, लेकिन जो समाज-सेवा में ही समाप्त हो गया, उस पर दया करना। वह बहुत कुछ पा सकता था; नहीं पाया; बहुत कुछ हो सकता था, नहीं हुआ। वह क्षुद्र से तृप्त हो गया। ___ और तुम्हें ऐसा व्यक्ति महात्मा भी मालूम पड़ेगा; क्योंकि तुम्हें भी लगेगा कितना काम कर रहा है। गरीबों के लिए कितना काम कर रहा है, बीमारों के लिए! अशिक्षितों को शिक्षित कर रहा है, रुग्णों का इलाज कर रहा है; अस्पताल खोल रहा है। स्कूल खोल रहा है; धर्मादय चला रहा है; प्याऊ खोल रहा है; प्यासों को पानी मिला रहा है। सीधी बात है; अच्छा काम कर रहा है। अच्छा काम निश्चित ही है, लेकिन धर्म अच्छे काम पर समाप्त नहीं हो जाता। धर्म जरा ऊंची उड़ान है; अच्छे के भी पार है। इसलिए अगर तुम्हारी महात्मा की यही धारणा हो गई तो तुम्हारा महात्मा बस ईसाई मिशनरी के तल का हो जाएगा, इससे ज्यादा नहीं। तुमने गांधी को महात्मा कहा इसी अर्थ में। तुम्हें जान कर यह हैरानी होगी कि गांधी ने कई बार अपने जीवन में यह सोचा कि ईसाई हो जायें। जब वे अफ्रीका में थे तो एक बार तो बिलकुल ही तैयार हो गये थे ईसाई होने को। उनके ऊपर ईसाइयत का बड़ा प्रभाव था। वे कहते भला हों कि गीता उनकी माता है, वह सच नहीं है बात। अगर उनके जीवन की धारणा को पूरा समझा जाये तो वे ईसाई ही हैं। क्योंकि उनके जीवन की सारी धारणा ईसाइयत से ही पैदा हुई है। उनके असली गुरु टालस्टाय, रस्किन, थोरो तीनों ईसाई हैं। इन तीन को उन्होंने गुरु कहा है। उनके ऊपर ईसाइयत का भारी प्रभाव है। प्रेम करुणा, साक्षी और उत्सव-लीला 63
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy