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________________ है उसका प्रवेश हो जायेगा। तुम्हारी आंखें ही द्वार बन जायेंगी। रोओ, मन भर कर रोओ! खयाल रखना, जिसका यह प्रश्न है उसके लिए अष्टावक्र की गीता सहयोगी न होगी। उसके लिए तो नारद के सूत्र हैं। अष्टावक्र की गीता तो आंख से आंसुओं को विदा कर देती है; आंखें बिलकुल सूख जाती हैं आंसुओं से। अष्टावक्र की गीता में भाव को कोई जगह नहीं है। अष्टावक्र की गीता में भक्ति को, प्रेम को, आराध्य को, पूजा को कोई जगह नहीं है। तो जिसका प्रश्न है, उससे मैं कहता हूं : जो भी मैं कह रहा हूं अष्टावक्र के संबंध में, तुम्हारे लिए नहीं है। तुम्हारी राह और भी दूसरी है। तुम्हारी राह फूलों-भरी है। तुम्हारी राह पर खूब हरियाली है और पक्षियों के गीत हैं। अष्टावक्र की राह तो रेगिस्तान की है। रेगिस्तान का भी अपना सौंदर्य है। विराट शांति! दूर तक सन्नाटा! लेकिन अष्टावक्र के मार्ग पर वैसी हरियाली नहीं है जैसी भक्त के मार्ग पर। वहां कृष्ण की बांसुरी नहीं बजती। ___जिसका प्रश्न है, उसके लिए राह नारद के सूत्रों में है, मीरा के भजनों में है, कबीर की उलटबांसियों में है। 'लेकिन इन अश्कों की तौहीन तो न कर क्योंकि मैं तो रजनीश की दुलहनियां!' यह जो प्रेम का वचन है, यह तुम्हें बहुत कुछ देगा। लेकिन इसके लिए तुम एक बात खयाल • रखना, इस वचन को पूरा करने के लिए तुम्हें बिलकुल मिट जाना पड़ेगा। यही फर्क है भक्ति में और ज्ञान में। ज्ञानी 'तू' को बिलकुल भूल जाता है और 'तू' के भूलते ही 'मैं' मिट जाता है। भक्त 'मैं' को भूल जाता है और 'मैं' के मिटते ही 'तू' मिट जाता है। दोनों एक ही परम शून्य को उपलब्ध हो जाते हैं या परम पुण्य को। लेकिन दोनों की राहें अलग हैं। भक्त अपने 'मैं' को परमात्मा के चरणों में समर्पित करते-करते शून्य हो जाता है। ज्ञानी परमात्मा को भी भूल जाता है; पर को ही भूल जाता है तो परमात्मा की जगह कहां! इसलिए तो बुद्ध और महावीर की भाषा में परमात्मा के लिए कोई जगह नहीं है। परमात्मा यानी पर. दसरा. अन्य। अन्य तो कोई भी नहीं है। ज्ञानी तो आत्मा में डूबता है और परमात्मा को छोड़ता चला जाता है। लेकिन आत्यंतिक घड़ी में दोनों रास्ते एक ही जगह पहुंच जाते हैं। या तो तुम इतने 'मैं' हो जाओ कि 'तू' न बचे, तो पहुंच गये। या 'तू' को इतना कर लो कि 'मैं' न बचे, तो पहुंच गये। दो में से कोई एक बचे तो पहुंच गये। जिसका प्रश्न है उससे मेरा कहना है : अष्टावक्र पर बहुत ध्यान मत देना। उससे अड़चन हो सकती है। पीड़ा भी होगी। लेकिन भक्त के मार्ग पर पीड़ा भी मधुर है। तृप्ति क्या होगी अधर के रस-कणों से खींच लो तुम प्राण ही इन चुंबनों से प्यार के क्षण में मरण भी तो मधुर है प्यार के पल में जलन भी तो मधुर है। 30 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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