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फिएट खरीदी, तुम्हारा पड़ोसी एंबेसेडर खरीद लाया। फिर किसी ने आंख में धूल फेंक दी! तुम किसी तरह दंड-बैठक लगा-लगा कर एंबेसेडर खरीद लाये, फिर पड़ोसी ने इंपाला खरीद ली। तुमने किसी तरह मकान बनाया, किसी ने और बड़ा मकान बना लिया। जिंदगी ऐसे ही दुख में बीत जाती है। ___ अहंकार कभी तृप्त नहीं हो सकता, क्योंकि अहंकार तो तुम्हारा खयाल मात्र है और कोई भी उसे तोड़ देता है। कोई भी जरा अकड़ कर खड़ा हो गया कि तुम्हारा अहंकार दो कौड़ी का हो जाता है। तुम्हारा अहंकार तुम्हारा खयाल है-दूसरों की तुलना में। तुम सोचते हो, मैं बड़ा हूं, विशिष्ट हूं! यही सब सोच रहे हैं। यह बीमारी सभी की एक जैसी है।
यहां करोड़ों-करोड़ों लोग हैं और सभी एक ही बीमारी से परेशान हैं कि मैं बड़ा। और सब यह सिद्ध करने की कोशिश कर रहे हैं कि मैं बड़ा, मैं तुमसे बड़ा!
कोई यहां बड़ा नहीं है, कोई यहां छोटा नहीं है। सब बस अपने जैसे हैं। यहां प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय है। अहंकार की दौड़ भ्रांत है। तुम जैसा न कोई कभी हुआ है, न कोई कभी फिर होगा। तुम जैसे बस तुम हो। तुलना का कोई उपाय नहीं है। तुलना की कोई जरूरत नहीं है। तुलना में अहंकार
तुम थोड़ा सोचो, सारी दुनिया मर जाये, सब लोग मर जायें, अकेले तुम बचे, बैठे अपने वृक्ष के तले-उस वक्त अहंकार होगा? क्या मतलब होगा अहंकार का? कोई और है ही नहीं। कोई और लकीर ही नहीं है, जिसके सामने तुम अपनी लकीर बड़ी करो। तुम अकेले हो तो फिर कैसा अहंकार! ___ और मैं तुमसे कहता हूं : यही घटना घटी सम्राट वू को; जब वह भीतर गया और विचार शून्य हो गये तो बिलकुल अकेला रह गया, दुनिया मिट गई।
गहरी नींद में देखते हो, रोज क्या होता है! फिर भी तुम्हें समझ नहीं आती। गहरी नींद में अहंकार रह जाता है? सम्राट की गहरी नींद में और भिखारी की गहरी नींद में तुम समझते हो कुछ फर्क रह जाता है? सम्राट भी गहरी नींद में सम्राट नहीं रह जाता; भिखारी भिखारी नहीं रह जाता। गहरी नींद में याद ही नहीं रह जाती कि तुम हिंदू कि मुसलमान कि ईसाई, कि महात्मा कि गृहस्थ, कुछ याद नहीं रह जाता। किसके पति, किसकी पत्नी, किसके बेटे, किसके बाप-कुछ याद नहीं रह जाता। कितने सर्टिफिकेट, कितनी उपाधियां-कुछ याद नहीं रह जाता। गहरी नींद में तुम्हारा अहंकार कहां होता है? गहरी नींद में विचार नहीं होता तो अहंकार नहीं होता। इसका अर्थ हुआ कि विचारों का संग्रह ही अहंकार है, भाव मात्र है।
ऐसी ही एक और दशा है गहरी नींद जैसी, सुषुप्ति जैसी एक और दशा है, जिसको हम समाधि कहते हैं। फर्क थोड़ा ही है। सुषुप्ति में भी विचार खो जाते, अहंकार खो जाता, परम शांति रह जाती, लेकिन बेहोशी होती है। समाधि में भी विचार खो जाते, अहंकार खो जाता, लेकिन मूर्छा नहीं होती, होश होता है। बस इतना ही फर्क है। इसलिए पतंजलि ने तो योगसूत्र में कहा है : समाधि सुषुप्ति जैसी है-थोड़े-से फर्क के साथ। और वह थोड़ा-सा फर्क है होश का।
ऐसा ही समझो कि तुम्हारे कमरे में दीया नहीं जला है, सब फर्नीचर निकाल लिया गया, दीवालों से तस्वीरें निकाल ली गईं, कुछ सामान कमरे में नहीं, कमरा बिलकुल खाली है, लेकिन अंधेरा है, दीया नहीं जला—यह सुषुप्ति। फिर तुमने दीया जला लिया, कमरा अब भी खाली है, लेकिन अब
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अष्टावक्र: महागीता भाग-4