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________________ दिन तुम धार्मिक हो गये। और अंततः पूछा है, 'क्या इससे 'संचित' का संकेत नहीं मिलता?' इससे सिर्फ इस बात का संकेत मिलता है कि मैं तुमसे जो कह रहा हूं उसमें से तुम कुछ भी न समझे। कुछ और बात का संकेत नहीं मिलता। इससे इतना ही संकेत मिलता है कि मैं यहां बीन बजाये जाता हूँ, तुम वहां पगुराये जाते हो। तुम समझ नहीं पाते जो मैं कह रहा हूं। तुम अपनी ही धन गाये जाते हो। मेरे और तुम्हारे प्रयोजन अलग-अलग मालूम होते हैं। तुम कुछ विशिष्ट होने आये हो, और मेरी सारी चेष्टा है कि तुम्हें जमीन पर ले आऊं, साधारण, सहज। तुम्हारी आकांक्षा है कि तुम अहंकार में सजावटें कर लो और मेरी इच्छा है कि तुम्हारा अहंकार नग्न दिगंबर छूट जाये, जैसा है वैसा है। अगर मेरे पास रहना है तो मुझे समझ कर रहो, अन्यथा तुम मुझे भी चूकोगे। और तुम्हारे जीवन में कुछ सुलझाव आने की बजाय उलझाव आ जायेंगे। क्योंकि द्वंद्व खड़ा हो जायेगा। अगर तुम्हें महामानव होना है, तुम कोई और महात्मा खोजो जो तुम्हें शिक्षा देगा-शुभ की अशुभ की, क्या करना क्या नहीं करना: अनशासन देगा: ब्रह्ममहर्त में उठने से लेकर रात सोने तक तम्हारे जीवन को कैदी का जीवन बना देगा, सारी व्यवस्था दे देगा। तुम कोई महात्मा खोजो। मैं साधारण आदमी हूं और मैं तुम्हें साधारण ही बना सकता हूं। मेरे जीवन में कुछ भी विशिष्टता नहीं है। विशिष्टता का आग्रह भी नहीं है। मैं बस तुम्हारे जैसा हूं। फर्क अगर कुछ होगा तो इतना ही है कि मुझे इससे अन्यथा होने की कोई आकांक्षा नहीं है। मैं परम तृप्त हूं। मैं राजी हूं। मैं अहोभाग्य से भरा हूँ; जैसा है सुंदर है, सत्य है। जो भी हो रहा है, उससे इंच भर भिन्न करने की कोई आकांक्षा नहीं है, कोई योजना नहीं है। मेरे पास कर्ता का भाव ही नहीं है। देखता हूं। जो दृश्य परमात्मा देता है, वही देखता हूं। अगर तुम भी द्रष्टा होने को राजी हो और कर्ता का पागलपन तुम्हारा छूट गया है, तो. ही मेरे पास तुम्हारे जीवन में कोई सुगंध, कोई अनुभूति का प्रकाश फैलना शुरू होगा। अन्यथा तुम मुझे न समझ पाओगे। मैं तो आलसी शिरोमणि हूं; तुम्हें भी वहीं ले चलना चाहता हूं जहां कर्तापन न रह जाये; जहां प्रभु जो कराये तुम करो, जो बुलवाये बोलो, जो न करवाये न करो; जहां तुम बीच-बीच में आओ ही न; जहां तुम मार्ग से बिलकुल हट जाओ। मैं बिलकुल मार्ग से हट गया हूं; जो होता है होता है। ऐसा ही तुम्हारे भीतर भी हो जाये, ऐसे आधार-मानुष को पुकारा है मैंने; ऐसे सहज मनुष्य को पुकार दी है। ___ संन्यास यानी सहज होने की प्रक्रिया। और सहज होने की प्रक्रिया का आधार भाव यही है कि मक्त तम हो, इसलिए कुछ और होना नहीं है। अपनी सहजता में डब गये कि मक्त हो गये। ___ इसलिए मैं तो घोषणा करता हूं तुम्हारी मुक्ति की। अगर तुम्हारी भी हिम्मत हो तो स्वीकार कर लो। साहस की जरूरत है। 342 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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