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________________ दूसरा प्रश्नः कोई बीस वर्षों से आप हम लोगों से बोल रहे हैं और आपके अनेक वक्तव्य एक-दूसरे का खंडन करते हैं; लेकिन आश्चर्य कि आज तक आपने अपना एक भी वक्तव्य वापिस नहीं लिया और न किसी में जो भी बोलता हूं, बोल दिया कि मेरा वक्तव्य में कुछ संशोधन करने की जरूरत संबंध छूट गया उससे। फिर मेरा क्या मानी। और आपके समस्त वक्तव्य अब रहा उसमें? जो बात मैंने तुमसे कह दी, तुम्हारी सार्वजनिक संपत्ति बन गये हैं। क्या आप हो गई। दूसरे क्षण में जो बात मैं कहूंगा, वह हो जान-बूझ कर ऐसा कर रहे हैं और इसके पीछे सकता है पहली के विपरीत दिखाई पड़ती हो; क्या राज है कोई? और क्या यह खतरा नहीं लेकिन अब पहली को बदलने वाला मैं कौन हूं? है कि कालांतर में लोग संदेह करें कि ये सारे जिस क्षण में पहली बात उठी थी, वह क्षण न वक्तव्य एक ही महापुरुष के हैं? रहा। उस क्षण के न रह जाने से अब उसे वापिस करने का भी कोई उपाय नहीं रह गया है। इसलिए मैं पीछे लौट कर देखता ही नहीं। उस क्षण में वही सत्य था जो मैंने कहा। वह उस क्षण का सत्य था। और संगति में मेरी श्रद्धा नहीं है। मेरी श्रद्धा सत्य में है। मैं जो भी कहूं वह एक-दूसरे से संगत हो, ऐसा मेरा कोई आग्रह नहीं है। क्योंकि अगर एक-दूसरे से मैं जो भी कहूं, वे सब वक्तव्य संगत होने चाहिए तो मैं असत्य हो जाऊंगा। क्योंकि सत्य स्वयं बहुत विरोधाभासी है। कभी सुबह है, कभी . रात है। और कभी धूप है और कभी छांव है। और कभी जीवन है और कभी मृत्यु है। सत्य के मौसम बदलते हैं। सत्य बड़ा विरोधाभासी है। राम में भी है, रावण में भी है। शुभ में भी है, अशुभ में भी है। सत्य के अनेक रूप हैं। सत्य अनेकांत है। इसलिए जो मैंने एक क्षण में कहा वह सत्य का एक पहलू था; दूसरे क्षण में जो कहा वह सत्य . का दूसरा पहलू होगा; तीसरे क्षण में जो कहा वह सत्य का तीसरा पहलू होगा। वे सभी सत्य के पहलू हैं, लेकिन सत्य विराट है। शब्द में तो छोटा-छोटा ही पकड़ में आता है, पूरा तो कभी पकड़ में नहीं आता। नहीं तो एक बार कह कर बात खतम कर देता। पूरा नहीं आता पकड़ में। पूरा आ नहीं सकता। शब्द बड़े संकीर्ण हैं। सत्य तो है आकाश जैसा और शब्द हैं छोटे-छोटे आंगन। तो जितना आंगन में समाता है उतना उस बार कह दिया। कल के आंगन में कुछ और समायेगा, परसों के आंगन में कुछ और। तो मैं पीछे लौट कर नहीं देखता। और पीछे लौट कर देखने का अर्थ भी क्या है? न मैं आगे की फिक्र करता, न मैं पीछे की फिक्र करता। इस क्षण में जो घटता है घट जाने देता हूं। फिक्र नहीं करता, क्योंकि मैं कोई कर्ता नहीं हूं। मैं अगर कहूं कि दस साल पहले जो मैंने कहा था, अब मैं वापिस लेता हूं-तो उसका तो अर्थ यह हुआ कि उसका कर्ता मैं था। और अब मैं अनुभव कर रहा हूं कि उससे झंझट आ रही है; अब मैं जो कह रहा हूं वह उसके विपरीत पड़ता है, इसलिए साफ-सुथरा कर लेना, उसे वापिस ले लेना। लेकिन जो दस साल पहले कहा गया था, किसी संदर्भ में, किसी परिस्थिति में, किसी व्यक्ति की मौजूदगी में, किसी चुनौती में, वह उस क्षण का सत्य था। उसे वापिस लेने का मुझे सन्यास-सहज होने की प्रक्रिया 343
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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