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________________ हम तो आगे-पीछे का बड़ा पागल हिसाब ले कर चलते हैं। हम तो किसी घड़ी को स्वतंत्र नहीं छोड़ते। हम तो परमात्मा को जरा भी मौका नहीं देते कि तुझे जैसा होना हो वैसा हो जा। हम तो कहते हैं ऐसा करो, ऐसा हो । फिर नहीं होता तो दुखित होते हैं। हो जाता है तो बड़े आनंदित होते हैं। और ध्यान रखना, जो होना है वही होना है। जो होना था वही होता है। और जो हुआ वही होना था। तुम्हारे चाहने इत्यादि से कुछ अंतर नहीं पड़ता, जरा भी अंतर नहीं पड़ता ! मगर तुम बीच में नाहक सुखी - दुखी हो लेते हो। टेलिफोन की घंटी बजी। रिसीवर उठाया तो दूसरी ओर से आवाज आयी : 'बहन कैसी तबीयत है ? ' ' बेहद परेशान हूं' – जवाब मिला । 'मेरे सिर में दर्द हो रहा है। टांगों और कमर में तीव्र पीड़ा है। घर में सभी चीजें बिखरी पड़ी हैं। बच्चों ने मुझे पागल बना दिया है।' 'सुनो' - दूसरी ओर से आवाज आयी - 'तुम लेट जाओ, मैं तुम्हारे पास आ रही हूं। दोपहर का खाना तैयार कर दूंगी। घर साफ कर दूंगी और बच्चों को नहला भी दूंगी। तुम थोड़ी देर आराम करना । पर महेश आज कहां है?" 'महेश ? कौन महेश ?' – जवाब मिला । 'तुम्हारा पति, महेश ।' 'मेरे पति का नाम महेश नहीं ।' पहली महिला ने लंबी सांस ली और बोली: 'फिर नंबर गलत मिल गया। क्षमा करें।' काफी देर खामोशी रही। फिर दूसरी महिला ने उदास स्वर में कहा : 'तो तुम अब न आओगी?' आदमी जो नहीं हो सकता, उसकी भी आकांक्षा करता है। अब आने का कोई कारण ही नहीं रहा। यह फोन ही गलत मिल गया। मगर आशा इसमें भी बांध ली कि अब आयेगी, भोजन भी बना देगी, कपड़े-लत्ते भी सुधार देगी, बच्चों को नहला भी देगी। ... 'तो तुम अब नहीं आओगी!' क्षोभ है। जो नहीं होना है, उसके लिए भी हम क्षुब्ध होते हैं । और जो होना ही है उसके लिए हम नाहक आनंदित होते हैं। जो होना ही है होता है; जो नहीं होना है नहीं होता है । 'मुक्त मनुष्य न विषय से द्वेष करने वाला है और न विषयलोलुप है । वह सदा आसक्ति-रहित मन वाला हो कर प्राप्त और अप्राप्त वस्तु का उपभोग करता है।' यह बड़ी अदभुत बात है। समझो। न मुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुपः । असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते।। न तो द्वेष करता है किसी चीज से और न किसी चीज से उसका कोई लोलुपता का संबंध है। राग-द्वेष नहीं है। मांग नहीं है। किसी चीज से बचने की आकांक्षा नहीं है। और कोई चीज मिल जाये, ऐसी आकांक्षा नहीं है। और एक बड़ी महत्वपूर्ण बात है कि प्राप्त और अप्राप्त वस्तु का उपभोग करता है। इसे कैसे समझोगे ? प्राप्त का उपभोग तो समझ में आता है। अप्राप्त का उपभोग ! इसे समझने के लिए तुम्हारी तरफ से चलना पड़े। तुम ऐसे हो कुछ कि तुम प्राप्त से भी दुखी होते हो और अप्राप्त से भी दुखी होते हो। तुम्हें प्राप्त भी पीड़ा देता है और अप्राप्त भी पीड़ा देता है। तब तुम समझ लोगे कि ज्ञानी की स्थिति तुमसे बिलकुल विपरीत है। तुमने खयाल किया ? तुम्हें जो नहीं मिला है, जो नहीं हुआ है, उसकी भी कितनी चिंता 214 अष्टावक्र: महागीता भाग-4
SR No.032112
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1990
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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