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________________ वैज्ञानिक कहते हैं, गोरे और काले में चार आने के रंग का फर्क है। आज नहीं कल वैज्ञानिक इंजेक्यान निकाल ही लेंगे। कि गोरे को नीग्रो होना है, एक इंजेक्यान लगवा लिया। चार आने का पिगमेंट, और सुबह उठे और नीग्रो हो गए। नीग्रो को गोरा होना है, चार आने का इंजेक्यान लगा लिया। चार आने के पीछे कितनी मारा-मारी है ! चमड़ी का रंग भीतर नहीं जाता है। तुम बीमार हो तो बीमारी भीतर नहीं जाती। तुम स्वस्थ हो तो स्वास्थ्य भीतर नहीं जाता। भीतर तो तुम उस परम अतिक्रमण की अवस्था में सदा एकरस हो, न बीमारी फर्क लाती, न स्वास्थ्य फर्क लाता। जीओ या मरो, उस भीतर के पुरुष को कोई तरंग नहीं छूती। निस्तरंग! वहां तक कोई लहर नहीं पहुंचती। सागर की सतह पर ही लहरें हैं, गहराई में कहां लहर! और यह तो गहरी से गहरी संभावना है जो तुम्हारे भीतर है। प्रशांत महासागर भी इ गहरा नहीं, जितनी गहराई पर तुम्हारा पुरुष छिपा है। इस पुरुष के अर्थ को जानने का नाम ही पुरुषार्थ है। और उस जानने के लिए जो भी तुम करो, वह सब पुरुषार्थ है। भाग्य का केवल इतना ही अर्थ है कि तुम अतिशय रूप से अपने जीवन में तनाव मत ले लेना। चलना जरूर। यात्रा करना, खोजना, लेकिन तनाव मत ले लेना । श्रम- रहित हो तुम्हारा प्रयास। करो तुम खूब, लेकिन करने के कारण उद्विग्न, चिंतित न हो जाना। तुमने फर्क देखा दोनों बातो में - स्व चित्रकार चित्र बनाता है, तुम देखो बैठ कर पास, कैसे बनाता है! जैसे छोटा बच्चा खेलता हो। कोई तनाव नहीं। कब पूरा होगा, होगा पूरा कि नहीं होंगा - इसकी भी कोई चिंता नहीं है; कोई खरीदेगा, नहीं खरीदेगा; बिकेगा, नहीं बिकेगा- इसकी भी कोई चिंता नहीं है। ऐसा लीन हो जाता है चित्र बनाने में, जैसे बनाना अपने आप में पूर्ण है। साधन ही साध्य है। कोई फलाकाक्षा नहीं है। लवलीन ! डुबकी लग जाती है! चित्रकार तो मिट ही जाता है। इसलिए सभी महाचित्रकारों ने कहा है कि हमें पता नहीं कौन हमारे हाथ में तूलिका सम्हाल लेता है! सभी महाकवियों ने कहा है: हमें पता नहीं, कौन हमारे भीतर गीत को गुनगुनाने लगता है! हम तो केवल वाहक होते हैं। हम तो केवल ले आते हैं उसकी खबर बाहर तक । संदेशवाहक ! जैसे कि तुम कलम से लिखते हो तो कलम थोडे ही लिखती है! लिखने वाले तुम हो; कलम तो सिर्फ तुम्हारे हाथ में सधी होती है। ऐसा ही महाचित्रकार या महाकवि या महानर्तक सिर्फ कलम की तरह हो जाता है परमात्मा के हाथ में नहीं कि लिखना नहीं होता, लिखना तो खूब होता है अब। अब ही लिखना हो पाता है! लेकिन अब परमात्मा लिखता है! कोई तनाव नहीं रह जाता। महाकुविक्र हुआ : कूलरिज । मरा तो चालीस हजार कविताएं अधूरी छोड़ कर मरा। मरने के पहले किसी ने पूछा कि इतना अंबार लगा रखा है, इनको पूरा क्यों नहीं किया? और अदभुत कविताएं हैं! किसी में सिर्फ एक पंक्ति कम रह गई है। पूरी क्यों नहीं की? तो कूलरिज ने कहा : मैं कैसे पूरी करूं? उसने वहीं तक लिखवाई। फिर मैं राह देखता रहा । फिर पंक्ति आगे नहीं आई। शुरू-शुरू में जब मैं जवान था, तो मैं जोड़-तोड़ करता था; तीन पंक्तियां उतरी, एक मैं जोड़ देता था। लेकिन धीरे- धीरे मैंने पाया, मेरी पंक्ति मेल नहीं खाती। वे तीन तो
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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