SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस बात को खयाल रखना। अगर भाग्य का परम सिद्धात तुम्हारे जीवन में अकर्मण्यता और आलस्य लाने लगे तो समझना कि तुमसे चूक हो गई तुम समझ नहीं पाए। अगर भाग्य का सिद्धात तुम्हारे जीवन में कर्म का प्रकाश लाए, और कर्ता को विदा कर दो तुम, और सारे कर्म का श्रेय परमात्मा के चरणों में चढ़ता जाए, तो समझना कि तुम बिलकुल, बिलकुल ठीक समझ गए; तीर ठीक जगह लग गया है। पूछा है: 'जो निश्चयपूर्वक जानते हैं उनमें से कोई दैव को, कोई पुरुषार्थ को, कोई दोनों को प्रबल बताते हैं।' निर्भर करता है-किस व्यक्ति से बात कही जा रही है? पुरुषार्थ है पल-पल डोलते हुए मन को निस्पंद करना। पुरुषार्थ है सोचने की प्रक्रिया को बंद करना । पुरुषार्थ वह है जो मन को समेट कर उसके उत्स पर डाल दे; मस्तिष्क के महल से सारी स्मृतियों को बुहार कर निकाल दे। मन का महल जब साफ होगा, तुम अपने आप के दर्शन पाओगे । मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि सोचना बंद करने से तुम मर नहीं जाओगे ऐसी है पुरुषार्थ की परिभाषा - परम पुरुषार्थ! - 'पुरुषार्थ' शब्द को तुमने कभी सोचा? पुरुष और अर्थ! तुम्हारे भीतर जो छिपा हुआ चैतन्य है, उसका नाम है पुरुष। तुम्हारा शरीर तो नगर है, पुरा। और उसके भीतर जो छिपा हुआ दीया है चैतन्य का, वह है-पुरुष । तुम एक बस्ती हो। वैज्ञानिक कहते हैं कि कोई सात करोड़ जीवाणु शरीर में रह रहे हैं। सात करोड़ ! छोटी-मोटी बस्ती नहीं - बड़े नगर हो, महानगर हो । बंबई भी छोटी आधा करोड़ लोग ही रहते हैं । तुम्हारे शरीर में सात करोड़, चौदह गुनी क्षमता है! भीड़ है तुम्हारे शरीर में। इन सारे जीवाणुओं के बीच में छिपा हुआ तुम्हारे चैतन्य का दीया है उसका नाम पुरुष है। पुरुष इसीलिए कि वह इस पूरे पुर के बीच में बसा है। फिर उस पुरुष के अर्थ को जान लेना पुरुषार्थ है। क्या है इस पुरुष का अर्थ ? कौन है यह पुरुष ? क्या है इसका स्वाद ? - उसे जान लेना । तो पुरुषार्थ तो एक ही है स्वयं को जान लेना। और स्वयं को जानने के लिए अहंकार का गिरा देना अत्यंत अनिवार्य है, क्योंकि वही नहीं जानने देता। अहंकार का अर्थ है : तुमने मान लिया तुम अपने को जानते हो बिना जाने । अहंकार का अर्थ है: तुमने कुछ झूठी मान्यता बना ली अपने संबंध में कि मैं यह हूं यह हूं? यह हूं - हिंदू हूं जैन हूं? ब्राह्मण हूं शूद्र हूं धनी हूं अमीर हूं गरीब हूं काला, गोरा, युवा, बूढ़ा - ऐसी तुमने धारणाएं बना लीं। इनमें से तुम कोई भी नहीं हो । जवानी आतोई है, चली जाती है। बुढ़ापा आता है, बुढ़ापा भी चला जाता है। जीवन आया, जीवन भी चला जाता है। तुम तो वही के वही बने रहते हो । न तुम गोरे, न तुम काले। चमड़ी का रंग पुरुष को नहीं रंगता, चमड़ी बाहर है। पुरुष बहुत गहरे में छिपा है वहा तक चमड़ी का रंग नहीं पहुंचता है। चमड़ी का रंग तो बड़ी साधारण-सी बात है।
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy