SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कहो सत्य, निर्वाण, मोक्ष- जो मर्जी । ऐसा समझो कि विज्ञान चढ़ता है वृक्ष की पीड़ से और विभाजन हो जाते हैं - शाखाएं, प्रशाखाएं, पत्तों –पत्तों पर, डाल-डाल, पात-पात फैल जाता है। एक पत्ते पर बैठे वैज्ञानिक को दूसरे पत्ते पर बैठे वैज्ञानिक का कोई भी पता नहीं । है भी दूसरा, इसका भी पता नहीं। क्या कह रहा है, यह भी कुछ पता नहीं । धर्म चलता है दूसरी यात्रा पर - पत्तों से प्रशाखाएं, प्रशाखाओं से शाखाएं, शाखाओं से पीड़ की तरफ -स्व की तरफ। विज्ञान पहुंचता क्षुद्र पर धर्म पहुंचता विराट पर। विज्ञान पहुंच जाता है अनेक पर, धर्म पहुंच जाता है एक पर। इसलिए इस सूत्र को खयाल रखना । विभागमिति संत्यज..... । तू विभाग करना छोड़। तू बांटना छोड़। तू उसे देख जो अविभाजित खड़ा है। अविभाज्य को देख। उस एक को देख जिसके सब रूप हैं। तू रूपों में मत उलझ और जब भी हम कहते हैं, मैं यह तभी हम कोई एक विभाग पकड़ लेते हैं। कोई कहता है, मैं ब्राह्मण हूं। तो निश्चित ही ब्राह्मण पूरा मनुष्य तो नहीं हो सकता। कोई कहता है मैं शूद्र हूं । तो वह भी पूरा मनुष्य नहीं हो सकता। जिसने कहा, मैं ब्राह्मण हूं उसने शूद्र को वर्जित किया। उसने अखंडता तोड़ी। जिसने कहा, मैं शूद्र हूं उसने ब्राह्मण को वर्जित किया, उसने भी अखंडता तोड़ी। जिसने कहा, मैं हिंदू हूं वह मुसलमान तो नहीं है निश्चित ही नहीं तो क्यों कहता कि हिंदू हूं! और जिसने कहा, मैं मुसलमान हूं वह भी टूटा ईसाई भी टूटा। ऐसे हम टूटते चले जाते हैं। फिर उनमें भी छोटे-छोटे खंड हैं। खंडों में खंड हैं। आदमी ऐसा बटता चला जाता है। तुम जब भी कहते हो, यह मैं हूं तभी तुम एक छोटा-सा घेरा बना लेते हो। सच तो यह है कि यह कहना कि मैं मनुष्य हूं यह भी छोटा घेरा है। मनुष्य की हैसियत क्या है संख्या कितनी है? इस छोटी-सी पृथ्वी पर है और यह विराट फैलाव है, इसमें मनुष्य है क्या! क्या - मात्र ! क्यों तुम मनुष्य से जोड़ते अपने को ? क्यों नहीं कहते मैं जीवन हूं? तो पौधे भी सम्मिलित हो जाएंगे, पक्षी भी सम्मिलित हो जाएंगे। फिर ऐसा ही क्यों कहते हो कि मैं जीवन हूं ऐसा क्यों नहीं कहते कि मैं अस्तित्व हूं? तो सब सम्मिलित हो जाएगा। 'अहं ब्रह्मास्मि' का यही अर्थ होता है कि मैं अस्तित्व हूं मैं ब्रह्म हूं । सब कुछ जो है उसके साथ मैं एक हूं वह मेरे साथ एक है। ऐसे विभागों को छोड़ते जाने वाला व्यक्ति सागर की अतल गहराई को अनुभव करता है। सागर की सतह पर लहरें हैं, गहराई में एक का निवास है। चट जग जाता हूं चिराग को जलता हूं हो सजग तुम्हें मैं देख पाता हूं कि बैठे हो
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy