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________________ चलती रही......| तुम जिन्हें साधारणत: साधु -महात्मा कहते हो, उन्होंने तुम्हें निषेध सिखाया है। उन्होंने कहा कि दबा लो जबर्दस्ती। लेकिन दबाने से कहीं कुछ मिटा है! सभी लोग, कोई सस्ता उपाय मिल जाए, इसकी खोज में लगे हैं। मैं तुमसे कहता हूं : दबाना भूल कर मत, अन्यथा जन्मों-जन्मों तक भटकोगे। इसी जन्म में क्रांति घट सकती है, अगर तुम भोगने पर तत्पर हो जाओ। तुम कहो कि ठीक है, अगर रस है तो उसे जान कर रहेंगे। अगर रस सिद्ध हुआ तो ठीक, अगर विरस सिद्ध हुआ तो भी ठीक। अनुभव से कभी कोई हारता नहीं, जीतता ही है। कुछ भी परिणाम हो। जो भी तुम्हें पकड़ता हो, जो भी तुम्हें बुलाता हो उसमें चले जाना। भय क्या है? खोओगे क्या? तुम्हारे पास है क्या? कई दफे मैं देखता हूं : लोग डरे हैं कि कहीं कुछ खो न जाए! तुम्हारे पास है क्या? तुम्हारी हालत वैसी है, जैसे नंगा सोचता है, नहाये कैसे? फिर कपड़े कहां सुखाके! कपड़े तुम्हारे पास हैं नहीं, तुम नहा लो! 'विषयों में विरसता मोक्ष है।' विरसता कैसे पैदा होगी-यही साधना है। तथाकथित धार्मिक लोग तुमसे कहते हैं : विरसता पैदा नहीं होगी, करनी पड़ेगी। मैं तुमसे कहता हूं : होगी, की नहीं जा सकती। अगर विषय अर्थहीन हैं तो हो ही जाएगी, अनुभव से हो जाएगी। तुम देखे, छोटा बच्चा खिलौनों में रस लेता है। लाख चेष्टा करो तो भी खिलौनों से उसका रस नहीं जाता। फिर बड़ा हो जाता है और रस चला जाता है। फिर तुम उससे कहो कि अपनी गुड्डी ले जा स्कूल, तो वह कहता है. 'छोड़ो भी! तुम्हारा दिमाग खराब है? स्कूल में क्या अपना मजाक करवाना है?' एक दिन खुद ही गुड्डी को कचरे घर में फेंक आता है कि झंझट मिटाओ, यह पुराने दिनों की बदनामी घर में न रहे। इसके रहने से पता चलता है कि हम भी कभी बद्ध थे। लेकिन यही छोटा जब था तो इसे समझाना कठिन था कि 'गुड्डी गुड्डी है, इतना रस मत ले। बिना गुड्डी के रात सो नहीं सकता था। जब तक गुड्डी न पकड़ ले हाथ में, तब तक रात नींद नहीं आती थी। क्या हो गया? प्रौढ़ता आ गई। समझ आई-अनुभव से ही आई। गुड्डी के साथ खेल-खेल कर धीरे-धीरे पाया कि मुर्दा है, चीथड़े भरे हैं भीतर। एक दिन बच्चे खोल कर देख ही लेते हैं कि गुड़िया के भीतर क्या है। कुछ भी नहीं है! तुमने देखा कि बच्चे अक्सर खिलौने तोड़ लेते हैं। उन्हें रोकना मत। वह उनकी प्रौढ़ता का लक्षण है। खिलौने तोड़ते इसलिये हैं कि वे देखना चाहते हैं कि भीतर क्या है! तुम बच्चे को घड़ी दे दो, वह जल्दी ही खोल कर बैठ जाएगा। तुम कहते हो. 'नासमझ, घड़ी खोल कर देखने की नहीं है। बिगाड डालेगा। लेकिन उसका रस घड़ी से ज्यादा इस बात में है कि भीतर क्या है! और वह ठीक है उसका रस। भीतर को जानना ही होगा, उतरना ही होगा-तभी छुटकारा होगा। बच्चे कीड़े-मकोड़ों तक को मार डालते हैं। तुम सोचते हो कि शायद हिंसा कर रहे हैं। गलत। वे असल में मार कर देखना चाहते हैं कि ' भीतर क्या है, कोन-सी चीज चला रही है! यह तितली उड़ी जा रही है, कोन उड़ा रहा है!' पंख तोड़ का भीतर झांकना चाहते हैं। यह भी जीवन की खोज है।
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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