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________________ यह जिज्ञासा है। यही जिज्ञासा उन्हें जीवन के और अनुभवों के भीतर-भी उतरने के लिए आमंत्रण देगी। एक दिन वे सभी अनुभवों को खोल कर देख लेंगे, कहीं भी कुछ न पायेंगे, सब जगह राख मिलेगी-उस दिन विरसता पैदा होती है। 'विषयों में विरसता मोक्ष है और विषयों में रस बंध है। संसार बाहर नहीं है तुम्हारे रस में है। और मोक्ष कहीं आकाश में नहीं है-तुम्हारे विरस हो जाने में है। श्रुतियों का प्रसिद्ध वचन है : मन एव मनुष्याणा कारणं बंध मोक्षयो:! मन ही कारण है बंधन और मोक्ष का। और मन का अर्थ होता है. जहां तुम्हारा मन। अगर तुम्हारा मन कहीं है तो रस। रस है तो बंधन है। अगर तुम्हारा मन कहीं न रहा, जब चीजें विरस हो गईं, मन का पक्षी कहीं नहीं बैठता, अपने में ही लौट आता है-वही मोक्ष। बंधाय विषयासक्त मुक्तयैर्निर्विषये स्मृनम्। बंधन का कारण है मन, और मुक्ति का भी। पक्षी जब तक उड़ता रहता है और बैठता रहता है अलग-अलग स्थानों पर-और हम बदलते रहते हैं, और हम किसी चीज में पूरे नहीं जाते-तो रस नया बना रहता है। एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन को मैंने देखा, एक नया-नया छाता लिये चला आ रहा है। मैंने पूछा: 'नसरुद्दीन कहां मिल गया इतना सुंदर छाता? और बड़ा नया है, अभी-अभी खरीदा क्या?' उसने कहा. 'अभी तो नहीं खरीदा, है तो करीब कोई बीस साल पुराना।' मैं थोड़ा चौंका। छाते के लक्षण बीस साल पुराने के नहीं थे। मैंने कहा. ' थोड़ी इसकी कथा कहो तो समझ में आए, क्योंकि यह बीस साल पुराना नहीं मालूम होता। छाते तो साल दो साल में खतम होने की अवस्था में आ जाते हैं, बीस साल!' उसने कहा. 'है तो बीस साल पुराना, आप मानो या न मानो। और कम से कम पच्चीस दफे तो इसको सुधरवा चुका और कम से कम छ: दफा दूसरों के छातो से बदल चुका है और नया का नया है, फिर भी नया का नया!' अब जब छाता बदल जाएगा तो नया का नया बना ही रहेगा। तुम कभी किसी एक रस में गहरे नहीं जाते-ऐसे फुदकते रहते हो तो रस नया का नया बना रहता है। थोड़े दौड़े धन की तरफ, फिर देखा कि यह नहीं ??| थोड़े दौड़े पद की तरफ, फिर देखा कि यहां भी बड़ी मुश्किल है, पहले ही से लोग क्यू बांधे खड़े हैं और बड़ी झंझट है! थोड़े कहीं और तरफ दौड़े, थोड़े कहीं और तरफ दौड़े; लेकिन कभी किसी एक तरफ पूरे न दौड़े कि पहुंच जाते आखिर तक, तो एक रस चुक जाता। और तुम्हें सिखाने वाले हैं, जो कहते हैं, कहां जा रहे हो 2' ये लौटने वाले लोग हैं जो कहते हैं, कहां जा रहे हो? इनमें से कुछ तो ज्ञाता हैं। जो ज्ञाता हैं, वे तो न कहेंगे कि कहां जा रहे हो? वे तो कह रहे हैं जरा तेजी से जाओ ताकि जल्दी लौट आओ। जो जाता नहीं हैं, जो बीच से लौट रहे हैं और जिनके लिए अगर खट्टे सिद्ध हुए हैं वे भी थोड़ी दूर गये थे और लौट पड़े, सोचा कि अपने बस का नहीं। मैंने यह अनुभव किया कि तथाकथित संन्यासियों में अधिक मूढ़ बुद्धि के लोग हैं जों कहीं जाते तो सफल हो भी नहीं सकते थे। तो वे कह रहे हैं, अगर खट्टे हैं। पहुंच सकते नहीं थे।
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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