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________________ पल भर कभी प्रतीक्षा। गान नहीं लिखता पंखों की अच्छी बुरी समीक्षा। दीप नहीं लेता शलभों की कोई अग्नि परीक्षा। धूम नहीं काजल बनने की करता कभी अभीप्सा। प्राण स्वयं ही केवल अपनी, तृषा तृप्ति का माध्यम। तत्व सभी निरपेक्ष, अपेक्षा मन का मीठा विभ्रम! तत्व सभी निरपेक्ष, अपेक्षा मन का मीठा विभ्रम। भ्रम है, सपना है-ऐसा हो, वैसा न हो जाए। और जैसा होना है वैसा ही होता है। तुम्हारे किए कुछ भी अंतर नहीं पड़ता, रत्ती भर अंतर नहीं पड़ता; तुम नाहक परेशान जरूर हो जाते हो, बस उतना ही अंतर पड़ता है। कभी तुम ऐसे भी तो जी कर देखो। कभी अष्टावक्र की बात पर भी तो जी -कर देखो। कभी तय कर लो कि तीन महीने ऐसे जीएंगे कि जो होगा ठीक, कोई अपेक्षा न करेंगे। क्या तुम सोचते हो, सब होना बंद हो जाएगा? मैं तमसे कह सकता हं प्रामाणिक रूप से वर्षों से मैंने कुछ नहीं किया, अपने कमरे में अकेला बैठा रहता हूं। जो होना है, होता रहता है-होता ही रहता है! एक बार तुम करके देख लो, तुम चकित हो जाओगे। तुम हैरान हो जाओगे कि जन्मों-जन्मों से कर-करके परेशान हो गए, और यह तो सब होता ही है। करने वाला जैसे कोई और ही है। सब होता रहता है। तुम बीच से हट जाओ, तुम रोड़े मत बनो। तुम जैसे-जैसे रोड़े बनते हो, वैसे-वैसे उलझते -हो। प्राहा, अपने को नकार कर सोचता है आदमी दूसरों के बारे में भटकता है अंधियारे में निकालता है खा कर चोट पत्थरों को गालियां। करता है निंदा रास्तों की सुन कर अपनी ही प्रतिध्वनि
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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