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________________ नित्यम् तृप्तः! स्वाद लो इस शब्द का नित्यम् तृप्त:! चबाओ इसे, गलाओ इसे! उतर जाने दो हृदय तक! नित्यम् तृप्तः। वह सदा तृप्त है। ऐसा व्यक्ति अतृप्ति जानता ही नहीं। अतृप्ति पैदा होती है-आकांक्षा से। तुम करते आकांक्षा, फिर वैसा नहीं होता तो अतृप्ति पैदा होती है। न करो आकांक्षा, न होगी अतृप्ति। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। स्वस्थेद्रिय................. और ऐसा व्यक्ति स्वयं में स्थित हो जाता है, स्वस्थ हो जाता है। और उसकी सारी इंद्रियां स्वयं से, भीतर की केंद्रीय शक्ति से संचालित होने लगती हैं। अभी तो इंद्रियां तुम्हें चलाती हैं। अभी तो दिखाई पड़ गया भोजन, और भूख लग आती है। भूख थी नहीं क्षण भर पहले। चमत्कार है कैसे तुम धोखा दे देते हो! क्षण भर पहले गुनगुनाते चले आ रहे थे गीत, और मिठाई की दूकान से गंध आ गई, नासापुटों में भर गई भूख लग गई! भूल गए, कहां जा रहे थे! पहुंच गए दूकान में। क्षण भर पहले भूख नहीं थी, क्षण भर में कैसे लग गई! कुछ समय तो लगता है भूख के लगने में सिर्फ गंध के कारण लग गई? नहीं, नाक ने मालकियत जतला दी। नाके तुम्हें खींच कर ले गई। ऐसे तो गुलाम मत बनो! राह चले जाते थे, कोई वासना न थी, कोई सुंदर स्त्री निकल गई, चित्त वासनाग्रस्त हो गया। सुंदर स्त्री की तो बात छोड़ो। अखबार देख रहे थे, अखबार में काली स्याही के धब्बे हैं और कुछ भी नहीं, वहां किसी ने नग्न स्त्री का चित्र बनाया हुआ है अखबार में उसी को देख कर आंदोलित हो गए! चल पड़े सपनों में, खोजने लगे, वासना प्रज्वलित होने लगी। यह तो हद हो गई। जरा सोचो भी तो, कागज का टुकड़ा है। उस पर कुछ स्याही के दाग हैं-इनसे तुम इतने प्रभावित हो गए? आंखों ने धोखा दे दिया। तो फिर आंखें दिखाने का साधन न रहीं, अंधा बनाने लगीं। जब आंख मालिक हो जाए तो अंधा बनाती है। जब तुम मालिक हो तो आंख देखने का साधन होती है। बुद्ध देखते हैं आंख से, महावीर देखते हैं-तुम नहीं। इंद्रियां अभी मालिक हैं; तुम गुलाम हो| इस गुलामी से छूट जाने का नाम मुक्ति है, मोक्ष है-जब तुम मालिक हो जाओ और इंद्रियां तुम्हारी अनुचर हो जाएं। स्वस्थेद्रिय: न वांछति न शोचति। ऐसा व्यक्तिं न तो किसी तरह की चिंता करता, न इच्छा करता, न शोक करता। क्योंकि सारी बात समाप्त हो गई। जो है, उसके साथ वह परम भाव से राजी है। नित्यम् तृप्त: 'सुख और दुख, जन्म और मृत्यु दैवयोग से ही होता है। ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह पुरुष साध्य कर्म को नहीं देखता हुआ और श्रम रहित कर्म करता हुआ भी लिपा नहीं होता है।' सुखदुःखे जन्ममृत्यु दैवादेवेति निश्चयी। साध्यादर्शी निरायास कुर्वत्रपि न लिप्यते।। सुखदुःखे जन्ममृत्यु दैवात् एव
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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