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________________ से मिलने, तब कहते हो, कर्तव्य है। जो करना पड़े। मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन घर आया और उसने देखा कि उसका मित्र उसकी पत्नी को चूम रहा है। वह एकदम सिर ठोक कर खड़ा हो गया। उसने कहा: 'मुझे तो करना पड़ता है, तू क्यों कर रहा है?' उसे भरोसा ही न आया। कर्तव्य का अर्थ ही है: नहीं करना था, फिर भी करना पड़ा। मन से नहीं किया, हृदय से नहीं किया—यह कोई कर्तव्य हुआ? तुम्हारा 'कर्तव्य' तो गंदा शब्द है। तो मैं तो तुमसे कहता हूं वही करना, जो सहज हो। धोखा मत देना। अगर पैर न दबाने हों पिता के तो क्षमा माग लेना, कहना कि भाव नहीं उठता, झूठ न करूंगा। ही, सहज उठता हो भाव, तो ही दाबना। मैं मानता हूं कि तुम्हारे पिता भी प्रसन्न होंगे, क्योंकि मेरा यह अनुभव है कि अगर तुम जबर्दस्ती पिता के पैर दाब रहे हो तो पिता प्रसन्न नहीं होते। जबर्दस्ती से कोई प्रसन्नता कहीं नहीं फलती । जब तुम्हीं प्रसन्न नहीं हो तो तुम्हारे हाथ की ऊर्जा और गर्मी और तुम्हारे हाथ की तरंग - तरंग कहेगी कि तुम जबर्दस्ती कर रहे हो, कर रहे हो, ठीक है! करना पड़ रहा है। उधर पिता भी पड़े देख रहे हैं कि ठीक है ! मजबूरी है तो कर रहे हो । न तुम प्रसन्न हो, न पिता प्रसन्न हैं । न तुम आनंदित हो, न तुम उन्हें आनंदित कर पाते हो। जो आनंद से पैदा नहीं होता, वह आनंद पैदा कर भी नहीं पाता। आनंद से बहेगी जो धार, उसी से आनंद फलता है। तो तुम कह देना साफ, भीतर कुछ, बाहर कुछ मत करना। बाहर पैर दा रहे हैं और बड़े आज्ञाकारी पुत्र बने बैठे हैं और भीतर कुछ और सोच रहे हैं, विपरीत सोच रहे हैं, क्रोधित हो रहे हैं। सोच रहे हैं, समय खराब हुआ, विश्राम कर लेते, वह गया। लेकिन तुम अपने साथ झूठ हो रहे हो और तुम पिता के सामने भी सच नहीं हो। मैं नहीं कहता, ऐसा कर्तव्य करो। मैं कहता हूं तुम क्षमा मांग लेना कहना कि क्षमा करें। ऐसा बचपन में मेरे होता था। मेरे दादा थे, उनको पैर दबवाने का बहुत शौक था। वे हर किसी को पकड़ लेते कि चलो, पैर दाबो। कभी-कभी मैं भी उनकी पकड़ में आ जाता। तो कभी मैं दाबता, जब मेरी मौज में होता; और कभी मैं उनसे कह देता, क्षमा करें, अभी तो भीतर मैं गालियां दूंगा। दबवाना हो दबवा लें, लेकिन मैं दाबूंगा नहीं। यह कर्तव्य होगा। अभी तो मैं खेलने जा रहा हूं। धीरे - धीरे वे समझे। एक दिन मैंने सुना, वे मेरे पिता से कह रहे थे कि जब यह मेरे पैर दाबता है तो जैसा मुझे आनंद मिलता है, कभी नहीं मिलता। हालांकि यह सदा नहीं दाबता । मगर जब यह दाबता है तो इस पर भरोसा किया जा सकता है कि यह दाब रहा है और इसे रस है। कभी-कभी तो यह बीच दाबते - दाबते रुक जाता है और कहता है, बस क्षमाः । 'क्यों भाई, क्या हो गया, अभी तो तू ठीक दाब रहा था । ' 'बस, अब बात खतम हो गयी, अब मेरा इससे आगे मन नहीं है । ' जितने प्रसन्न मुझसे थे, कभी परिवार में किसी से भी नहीं रहे। हालांकि उनके बेटे तो उनके पैर दाबते थे, मगर वे उनसे प्रसन्न नहीं थे। मैं तो छोटा था, ज्यादा उनके पैर दाब भी नहीं सकता था। फिर तो धीरे धीरे वे मुझसे पूछने लगे कि आज मन है? उन्होंने यह कहना बंद कर दिया
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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