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________________ कि चलो, पैर दाबों। फिर तो धीरे-धीरे मैं खुद भी जब कभी मुझे मन होता, मैं उनसे जा कर कहता:' आपका मन है? आज मैं राजी ह। जीवन को जितने दर तक बन सके, छोटे से छोटे काम से ले कर, सहज करना उचित है, क्योंकि सहज ही धीरे - धीरे समाधि बन जाता है। वही करना जो तुम्हारे आनंद से हो रहा हो। और तुम लंबे अर्से में पछताओगे नहीं। हो सकता है, तत्क्षण अड़चन मालूम पड़े। लेकिन झूठ झूठ है और तत्क्षण कितना ही सुविधापूर्ण मालूम पड़े अंततः तुम्हें जाल में उलझा जाएगा। तुम साफ-साफ होना। इसको मैं प्रामाणिक होना कहता हूं। पूछा है तुमने 'मनुष्य फिर कैसे तय करे-क्या कर्तव्य, क्या अकर्तव्य?' तय करने की बात ही नहीं है। जो सुखद, जो प्रीतिकर-वही कर्तव्य। जो प्रीतिकर नहीं, जो सुखद नहीं-वही अकर्तव्य। तुम्हें उल्टा सिखाया गया है, इसलिए उलझन पैदा हो रही है। तुम्हें सिखाया गया है प्रीतिकर-अप्रीतिकर का कोई सवाल नहीं है, सहज-असहज का कोई सवाल नहीं है-अरे जैसा चाहते हैं, वैसा करो तो कर्तव्य; तुम जैसा चाहते हो, वैसा करो तो अकर्तव्य हो गया। तो हर व्यक्ति दूसरे के हिसाब से जी रहा है। इसलिए तो कम लोग जी रहे हैं, अधिक लोग तो मरे-मराए हैं, जी ही नहीं रहे हैं। यह कोई जीने का ढंग है? दूसरों की अपेक्षाएं पूरी करने में जीवन बिता रहे हो, फिर कैसे सुगंध होगी, फिर कैसे संगीत जन्मेगा, फिर तुम कैसे नाचोगे? सदा दूसरे की आकांक्षा पूरी कर रहे हो। एक मां अपने बेटे को कह रही थी कि बेटा, सदा दूसरों की सेवा करनी चाहिए। उसने पूछा: 'क्यों?' उसकी मां ने कहा: 'क्यों! शास्त्र ऐसा कहते हैं। भगवान ने इसीलिए तो बनाया हमें कि हम दूसरों की सेवा करें।' उस बेटे ने कहा' और दूसरों को किसलिए बनाया है? इसका भी तो कुछ उत्तर होना चाहिए। हम उनकी सेवा करें, इसलिए बनाया है, और हमको इसीलिए बनाया है कि वे हमारी सेवा करें। तो सब अपनी- अपनी सेवा न कर लें भू: यह इतना जाल क्यों फैलाना?' तुम अपेक्षा दूसरे की पूरी करो, दूसरे तुम्हारी अपेक्षाएं पूरी कर रहे हैं। न वे प्रसन्न हैं, न तुम प्रसन्न हो। जगत बिलकुल उदास हो गया है। ___नहीं, यही मेरी मौलिक क्रांति है जो मैं तुम्हें देना चाहता हूं। तुम वही करो जो तुम्हारा आनंद है, चाहे कुछ भी कीमत हो। तुम कभी वह मत करो जो तुम्हारा आनंद नहीं है। चाहे उसके लिए तुम्हें कितना ही चुकाना पड़े, तुम आखिर में पाओगे कि तुम जीते हारे नहीं। और मैं तुमसे यह भी कहता हूं कि चाहे शुरू-शुरू में लोग तुमसे परेशान हों; क्योंकि उनकी आदतें खराब कर ली हैं तुमने इसलिए, समाज विकृत हो गया है इसलिए, लेकिन धीरे-धीरे तुम्हारी प्रामाणिकता समझेंगे। तुम पर भरोसा किया जा सकता है, ऐसा मानेंगे, क्योंकि तुम प्रामाणिक हो। सत्य अंततः किसी को भी नुकसान नहीं पहुंचाता शुरू-शुरू में कई दफे लगता है कि नुकसान पहुंचाता है। असत्य मत होओ और भावों को तो कभी झुठलाओ मत। अगर इस प्रक्रिया में तुम पड़ गए झुठलाने की तो तुम धीरे-धीरे झूठ का एक संग्रह हो जाओगे, जिसमें से जीवन की आग बिलकुल
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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