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________________ पति को छोड़ने को राजी है, पति के बिना जीने को राजी है! अहंकार का कैसा मजा है! लेकिन भ्रष्ट हो गए, इससे चोट लगती है। कहने लगी कि अगर ढंग से संन्यास लेते - वें जैन है - तो शोभायात्रा निकलती; दूर-दूर से लोग रिश्तेदार इकट्ठे होते, पूजा-प्रतिष्ठा होती । वह सोच रही है कि वह बड़ी गहरी बातें कह रही है। वह इतना ही कह रही है कि अहंकार पर कुछ और फूलमालाएं चढ़ जातीं। सह लेते दुख इनको छोड़ने का, मगर प्रतिष्ठा तो बनी रहती। मगर यह तो बड़ा उपद्रव कर लिया। अब जहां जाओ, वहीं मुसीबत है। मेरा संन्यास तो अड़चन में डालेगा। और संन्यास ही क्या जो अड़चन में न डाले! क्योंकि उसी अड़चन से, चुनौती से तो तुम्हारे जीवन का विकास होगा। उसी चुनौती पर तो धार रखी जाएगी। उसी पर तो तुम्हारी तलवार में धार आएगी। लोग हंसेंगे, विरोध करेंगे। लोग कहेंगे: यह भी कोई संन्यास है! हजार आलोचना करेंगे, विवाद करेंगे। और फिर भी तुम डटे रहे तो तुम्हारे जीवन में कुछ बल पैदा होगा। पुराने ढंग का संन्यास तो अब कूड़ा-कचरा है! अहंकार की पूजा उससे हो जाएगी, लेकिन सत्य का कोई अनुभव न होगा। क्योंकि अहंकार से बड़ी और कोई बाधा नहीं है सत्य के अनुभव आखिरी प्रश्न : आपने कहा कि कर्म करते हुए कर्ता- भाव नहीं रखना है और जो होता है उसे होने देना है। इस हालत में कृपया बताएं कि मनष्य फिर कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय कैसे करे? जो हो सहज, वही कर्तव्य है। जो करना पड़े जबर्दस्ती, वही अकर्तव्य है। तुम चौंकोगे, क्योंकि तुम्हारी परिभाषा ठीक उल्टी है। तुम तो कर्तव्य उसी को कहते हो जो मजबूरी में करना पड़ता है। बाप बीमार है, पैर दबा रहे हैं- तुम कहते हो, कर्तव्य कर रहे हैं। कर्तव्य कर रहे हैं - मतलब कि 'मरो भी! या ठीक हो जाओ, कर्तव्य तो न करवाओ। अब यह किन पापों का फल भोग रहे हैं, कि अभी फिल्म देखने गए होते, कि क्लब में नाच हो रहा है, कि रोटरी क्लब की बैठक हो रही है, और अब यह बाप के पांव दबाने पड़ रहे हैं! किसने तुमसे कहा था कि हमको जन्म दो ?' ये सब विचार उठ रहे हैं। कर्तव्य का मतलब तुम समझते हो ? कर्तव्य का मतलब है: जिसे तुम करना नहीं चाहते और करना पड़ता है। तुम किसी स्त्री के प्रेम में पड़ जाते हो, तब तुम यह तो नहीं कहते कि यह कर्तव्य है। तब तुम कहते हो : प्रेम ! लेकिन जब तुम मां को देखने जाते हो तो कहते हो, कर्तव्य है। तुम अपनी प्रेयसी से मिलने जाते हो, तब तुम नहीं कहते कि कर्तव्य, यद्यपि जब तुम घर लौटते हो पत्नी
SR No.032111
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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