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________________ वन-वन उत्स का अज्ञान बन गया व्याध का संधान । फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा! कस्तूरी कुंडल बसै वह कस्तूरा फिरता है पागल, अंधा बना - अपनी ही गंध से ! फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा ! दौड़ता फिरता, भागता कि कहां से गंध आती, गंध पुकारती...! यह गंध जो तुम मुझमें देख रहे हो, यह तुम्हारी गंध है। यह स्वर जो तुमने मुझमें सुना है यह तुम्हारे ही सोए प्राणों का स्वर है। फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा वन-वन उत्स का अज्ञान बन गया व्याध का संधान । जो मारने वाला छिपा है व्याध कहीं, उसके हाथ में अचानक कस्तूरा आ जाता है । कस्तुरा अपनी ही गंध खोजने निकला था। तुम भी न मालूम कितने व्याधों के संधान बन गए हो - भ के, कभी पद के, कभी प्रतिष्ठा के । न मालूम कितने तीर तुम में चुभ गए हैं और तुम भटक रहे हो खोजते अपने को! फिरा कस्तूरा अपनी ही गंध से अंधा अपनी ही गंध का पता नहीं, भागते फिरते हो! अकारण संसार के हजार-हजार तीर छिदते हैं और तुम्हारे हृदय को छलनी कर जाते हैं। सदगुरु का इतना ही अर्थ है, जिसकी मौजूदगी में तुम्हें पता चले कि कस्तूरी कुंडल बसै। वह तुम्हारे भीतर बसी है। अब समर्पण कर दिया। पहले भी सोचते रहे, अब भी सोच रहे हो - सोच-सोच कर कब तक गंवाते रहोगे? एक तो समर्पण ही सोच कर नहीं करना था। अब एक तो भूल कर दी, अब कर ही चुके, अब तो सोचना छोड़ो। अब तो पूंछ कट ही गई। अब तो उसे जोड़ लेने के सपने छोड़ो। वह जो थोड़ी-सी जीवन-रेखा बची है, वह जो थोड़ी-सी जीवन-ऊर्जा बची है, उसका कुछ सदुपयोग हो जाने दों- उसे सोचने – सोचने में गंवाओ मत ! एक बची चिनगारी, चाहे चिता जला या दीप। जीर्ण थकित लुब्धक सूरज की लगने को है आंख फिर प्रतीची से उड़ा तिमिर - खग खोल सांझ की पांख हुई आरती की तैयारी शंख खोज या सीप। मिल सकता मनवंतर क्षण का चुका सको यदि मोल
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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