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________________ रह जाएंगे काल-कंठ में माटी के कुछ बोल आगत से आबद्ध गतागत फिर क्या दूर समीप? एक बची चिनगारी, चाहे चिता जला या दीप। थोड़ी-सी जो जीवन-ऊर्जा बची है, इसे तुम चिता के जलाने के ही काम में लाओगे या दीया भी जलाना है? हो गया सोच-विचार बहुत, अब इस सारी ऊर्जा को बहने दो समर्पण में! आओ निकट, आओ समीप-ताकि जो मेरे भीतर हुआ है, वह तुम्हारे भीतर भी संक्रामक हो उठे। एक बची चिनगारी, चाहे चिता जला या दीप। हुई आरती की तैयारी, शंख खोज या सीप। समर्पण किया, संन्यास मैंने तुम्हारे हाथ में दे दिया अब इसे हाथ में रखे बैठे रहोगे? इस बांसुरी को बजाओ! भले ही फूंकते रहो बांसुरी बिना धरे छिद्रों पर अंगुलियां नहीं निकलेगी प्रणय की रागिनी! दे दी बांसुरी तुम्हें, अब तुम ऐसे ही खाली फूंक-फूंक करते रहोगे? सोच-विचार फूंकना ही है। कुछ जीवन-ऊर्जा की अंगुलियां रखो बांसुरी के छिद्रों पर भले ही फूंकते रहो बांसुरी बिना धरे छिद्रों पर अंगुलियां नहीं निकलेगी प्रणय की रागिनी! यह जो संन्यास तुम्हें दिया है, यह परमात्मा के प्रणय के राग को पैदा करने का एक अवसर बने! सोच-विचार बहुत हो चुका। सुना नहीं अष्टावक्र को कहा जनक को : कितने-कितने जन्मों में तुमने अच्छे किए कर्म, बुरे किए कर्म, क्या काफी नहीं हो चुका? पर्याप्त नहीं हो चुका? बहुत हो चुका, अब जाग! अब उपशांति को, विराम को, उपराम को उपलब्ध हो। अब तो लौट आ घर! अब तो वापिस आ जा मूलस्रोत पर! उस मूलस्रोत का नाम साक्षी है। संन्यास तो बांसुरी है, अगर अंगुलियां रख कर बजाई तो जो स्वर निकलेंगे, उनसे साक्षी- भाव जन्मेगा। संन्यास तो केवल यात्रा है-साक्षी की तरफ। और जब तक साक्षी पैदा न हो जाए, समझना : संन्यास पूरा नहीं हुआ है।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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