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________________ समर्पण करना ही नहीं होता। समर्पण तो समझ की अभिव्यक्ति है-होता है। तुम सुनते रहो मुझे पीते रहो मुझे, बने रहो मेरे पास, बने रहो मेरी छाया में धीरे- धीरे, धीरे- धीरे, एक दिन तुम अचानक पाओगे. समर्पण हो गया! तुम सोचो मत इसके लिए कि करना है, कि कैसे करें, कब करें। तुम हिसाब ही मत रखो यह। तुम तो सिर्फ बने रहो। सत्संग का स्वाभाविक परिणाम समर्पण है। न तो शिष्य को करना होता है, न गुरु को करना होता है। गुरु तो कुछ करता ही नहीं, उसकी मौजूदगी काफी है; शिष्य भी कुछ न करे, बस सिर्फ मौजूद रहे गुरु की मौजूदगी में! इन दो मौजूदगियो का मेल हो जाए, ये दोनों उपस्थितिया एक -दूसरे में समाविष्ट होने लगें, ये सीमाएं थोड़ी छूट जाएं, एक-दूसरे में प्रवेश कर जाएं, अतिक्रमण हो जाए! मेरे और तुम्हारे बीच फासला कम होता जाए! सुनते -सुनते, बैठते-बैठते, निकट आते -आते कोई धुन तुम्हारे भीतर बजने लगे। न तो मैं बजाता हूं, न तुम बजाते हो-निकटता में बजती है। मेरा सितार तो बज ही रहा है, तुम अगर सुनने को राजी हो तो तुम्हारा सितार भी उसके साथ-साथ डोलने लगेगा; तुम्हारे सितार में भी स्वर उठने लगेंगे। तो, न तो शिष्य करता समर्पण, न गुरु करवाता। जो गुरू समर्पण करवाए, वह असदगुरु है। और जो शिष्य समर्पण करे, उसे शिष्यत्व का कोई पता नहीं। समर्पण दोनों के बीच घटता है, जब दोनों परम एकात्ममय हो जाते हैं। गुरु तो मिटा ही है, जब शिष्य भी उसके पास बैठते-बैठते, बैठते -बैठते मिटने लगता है, पिघलने लगता है-समर्पण घटता है। 'या कि गुरु के सहयोग से वह शिष्य में घटित होता है।' न कोई सहयोग है। गुरु कुछ भी नहीं करता। अगर गुरु कुछ भी करता हो तो वह तुम्हारा दुश्मन है। क्योंकि उसका हर करना तुम्हें गुलाम बना लेगा। उसके करने पर तुम निर्भर हो जाओगे। किसी के करने से मोक्ष नहीं आने वाला है। गरु कछ करता ही नहीं। गुरु तो एक खाली स्थान के देता है। गुरु तो अपनी मौजूदगी तुम्हारे सामने खोल देता है। अपने को खोल देता है। गुरु तो एक द्वार है। द्वार में कुछ भी तो नहीं होता, दीवाल भी नहीं होती। द्वार का मतलब ही है : खाली। तुम उसमें से भीतर जा सकते हो। तुम अगर डरो न, तुम अगर सोचो -विचारो न, तो धीरे से दवार तुम्हें बुला रहा है। तुमने देखा, खुला द्वार एक निमंत्रण है! खुले द्वार को देख कर तुम अगर उसके पास से निकलो तो भीतर जाने का मन होता है। अगर तुम हिम्मत जुटा लो और खुले द्वार का निमंत्रण मान लो तो गुरु गुरुद्वारा हो गया उसी से तुम प्रविष्ट हो जाते हो। गुरु कुछ करता नहीं। गुरु केटेलिटिक एजेंट है। उसकी मौजूदगी कुछ करती है गुरु कुछ भी नहीं करता। और मौजूदगी तभी कर सकती है जब तुम करने दो-तुम मौका दो, तुम अवसर दो, तुम अपनी अकड़ छोड़ो, तुम थोड़े अपने को शिथिल करो, विश्राम में छोड़ो। जो है, वह तो तुम्हारे भीतर है -गुरु की मौजूदगी में तुम्हें पता चलने लगता है। फिरा अपनी ही गंध से अंध कस्तूरा
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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