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________________ तृष्णामात्रात्मक बंध: तन्नाश मोक्ष: उच्यते। 'और जहां तृष्णा गिर गई, वहीं मोक्ष।' और संसार मात्र में असंग होने से निरंतर आत्मा की प्राप्ति और तष्टि होती है। भवासंसक्तिमात्रेण मुह मुह प्राप्तितुष्टि। और जैसे -जैसे वासना के गिरने की झलकें आती हैं.. जैसे वासना गिरी कि तत्क्षण मोक्ष झलका! ऐसा बार-बार होगा। मुहुः मुहुः! प्राप्ति होगी, तुष्टि होगी! पहले-पहले तो कभी-कभी क्षण भर को वासना सरकेगी, लेकिन उतनी ही देर में आकाश खुल जाएगा और सूरज प्रगट हो जाएगा। जैसे किसी ने मूंदे-मूंदे आंख जरा-सी खोली, फिर बंद कर ली, पुरानी आदतवश आंख फिर बंद हो गई, फिर जरा-सी खोली, फिर बंद कर ली, फिर धीरे- धीरे खोलने के लिए अभ्यस्त हुआ फिर पूरी आंख खोली और फिर कभी बंद न की। तो पहले तो बार-बार ऐसा होगा। __'संसार-मात्र में असंग होने से बार-बार आत्मा की प्राप्ति और तष्टि होती है।' बार-बार, फिर-फिर, पुन: -पुन:! और रस बार-बार बढ़ता जाता है, क्योंकि आंख बार-बार और भी खुलती जाती है। जैसे-जैसे सत्य दिखाई पड़ना शुरू होता है, वैसे-वैसे असत्य से सारे संबंध टूटने लगते हैं। जैसे ही दिखाई पड़ गया कि असार असार है, वैसे ही हाथ से मुट्ठी खुल जाती है। जैसे ही दिखा सार सार है, वैसे ही सार को हृदय में संजो लेने की, हृदय को मंजूषा बना लेने की सहज प्रवृत्ति हो जाती है। 'तू एक शुद्ध चैतन्य है, संसार जड़ और अस्त है, वह अविदया भी असत है-इस पर भी तू क्या जानने की इच्छा करता है?' अष्टावक्र कहते हैं. यहां जानने को और कुछ भी नहीं। यहां तीन चीजें हैं. आत्मा है, जगत है और आत्मा और जगत के बीच एक भ्रांत संबंध है, जिसको हम अविद्या कहें, माया कहें, अज्ञान कहें। यहां तीन चीजें हैं. आत्मा, जगत- भीतर है कुछ हमारे, चैतन्य-मात्र, और बाहर है जड़ता का फैलाव-और दोनों के बीच में एक सेतु है। वह सेतु अगर अविदया का है, तो हम उलझे हैं। वह सेतु अगर तृष्णा का है, तो हम बंधन में पड़े हैं। वह सेतु अगर मांग का है, याचना का है, तो हम भिखारी बने हैं। और हमें अपनी संपदा का कभी पता न चलेगा। अगर दिखाई पड़ गया कि वह अविदया, और माया, और सपना, और मूर्छा व्यर्थ है और हम जागने लगे, तो बीच से सेतु टूट जाता है. वहां जड़ संसार रह जाता है, यहां चैतन्य आत्मा रह जाती है। जानने को फिर कुछ और नहीं है। 'तू एक शुद्ध चैतन्य है।' त्वमेकश्चेतन शुद्धो जड विश्वमसत्तथा। अविदयापि न किचित्सा का बभत्सा तथापि ते।। त्वम् एक: -तू एक; शुद्धः -शुद्ध: चेतन: -चैतन्य, विश्व जड़ च असत्-और विश्व है जड़, स्वप्नवत। तथा सा अविदया अपि न किचित-और जैसा यह जड़ जगत असत है, स्वन्नवत है-इससे जो हमने संबंध बनाए हैं, स्वभावत: वे संबंध सत्य नहीं हो सकते।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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