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________________ सदगुरु वही है, जो तुम्हें स्वयं से भी मुक्त कर दे। नहीं तो संसार की सारी वासनाएं धीरेधीरे गुरु पर लग जाती हैं, तुम्हारा मोह गुरु से बन जाता है। फिर तुम उसकी फिक्र में लग जाते हो। फिर मोह कैसे अंधेपन में ले जाता है, कहना कठिन है। मैं पंजाब जाता था, एक घर में ठहरता था। एक दिन सुबह उठ कर निकला तो देखा गुरु ग्रंथ साहब-किताब! –को सजा कर रखा हुआ है। सामने दतौन रखी है और एक लोटा पानी भरा रखा है। मैंने पूछा, मामला क्या है? कहते हैं, गुरु ग्रंथ साहब के लिए दतौन! अब पागलपन की कोई सीमा होती है! नानक के लिए दी थी दतौन-ठीक, समझ में आता; तुम गुरु-ग्रंथ को दतौन लगा रहे? लेकिन भक्त यही कर रहे हैं। मूर्ति को सजाते हैं, भोग लगाते हैं, उठाते-बिठाते, नहलातेसुलाते, न मालूम क्या-क्या करते रहते हैं! खेल-खिलौनों से कब छूटोगे? छोटे बच्चों जैसी बात हो गई, बचकानी हो गई। छोटे बच्चे अपनी ग्प्रा-उप्री को सम्हाले फिरते हैं, स्नान करवाते हैं, कपड़े बदलाते हैं, भोजन भी करवाते हैं, सुलाते भी हैं-तुम उनको कहते हो बचकाने! और तुम रामचंद्र जी के साथ यही कर रहे हो। मगर मोह है। भक्त को लगता है यह तो भक्ति है, यह तो प्रेम है, यह तो बड़ी ऊंची बात है! यह कितनी ही ऊंची हो, यह तुम्हें कभी भी मुक्त न होने देगी, तुम बंधे ही रह जाओगे। संसार से छूटना कठिन है, फिर धर्म से छूटना और भी कठिन हो जाता है। सांसारिक संबंधों से छूटना कठिन है, फिर धार्मिक संबंधों से छूटना और भी कठिन हो जाता है। क्योंकि धार्मिक संबंध इतने प्रीतिकर हैं! अब गुरु और शिष्य का संबंध ऐसा प्रीतिकर है, उसमें कड़वाहट तो है ही नहीं, रस ही रस है। पति-पत्नी तो एक-दूसरे से ऊब भी जाते हैं, बाप-बेटा तो एक-दूसरे से कलह भी कर लेते हैं, झंझट भी हो जाती है लेकिन गुरु-शिष्य का संबंध तो बड़ा ही मधुर है। वहां न कोई झंझट है, न कोई झगड़ा है, न कोई कलह है, न कोई काटे हैं। वहां तो रस ही रस है। वहां तो शिष्य भी अपनी ऊंचाई में मिलता है। और गुरु तो अपनी ऊंचाई पर है। तुम जब गुरु के पास आते हो तब तुम्हारे भीतर जो श्रेष्ठतम है, वह प्रगट होने लगता है। इसलिए मिलन श्रेष्ठ का श्रेष्ठ से होता है। तुम गुरु के पास अपनी गंदी शक्ल ले कर थोड़े ही आते हो। स्थान करके, ताजे हो कर, शुभ मुहूर्त में पूजा-प्रार्थना के भाव से भरे, तुम गुरु की सन्निधि में आते हो तुम्हारा शुद्धतम रूप तुम लाते हो। गुरु के श्रेष्ठतम से मिलना है तो जो भी तुम्हारे पास श्रेष्ठतम है, उसे ले कर आते हो। इन दो के बीच जो मिलन होता है, वह तो अति मधुर है। फिर उसमें बंधन पैदा होता है। फिर लगता है : बस, ऐसा ही बना रहे, ऐसा ही चलता रहे, सदा-सदा, यह सपना कभी टूटे न! । लेकिन यह सपना भी टूटना ही चाहिए। शिष्य न तोड़ना चाहे तो भी गुरु को तोड़ना पड़ेगा। शिष्य यह नासमझी कर सकता है, यह कामना कर सकता है-गुरु तो इस कामना को बल नहीं दे सकता। 'मात्र तृष्णा ही बंध है और उसका नाश मोक्ष कहा जाता है। '
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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