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________________ तत्क्षणाद् बंध निर्मुक्त:। -उसी क्षण तू बंधन से मुक्त हो जाएगा। स्वरूपस्थो भविष्यसि। -और अपने स्वभाव में थिर हो जाएगा। पहुंच जाएगा उस आंतरिक केंद्र पर जहां कोई तरंग नहीं पहुंचती। __'जब भूत-विकारों को, देह, इंद्रिय आदि को यथार्थत: वैसा ही देखेगा, जैसे वे हैं.।' शरीर को जब तू शरीर की भांति देखेगा। अभी हम देखते हैं : मेरा शरीर, मैं शरीर, मेरा मन, मैं मन। अभी हम चीजों को वैसा देखते हैं जैसी वे नहीं हैं, हम अन्यथा देखते हैं। और हम अन्यथा इसलिए देखते हैं कि अभी हमारी देखने की क्षमता ही साफ नहीं है, बड़ी धूमिल है, कुछ का कुछ दिखाई पड़ता है। अष्टावक्र कहते हैं. जो जैसा है, उसे वैसा ही देख लेना है। शरीर, शरीर है। मन, मन है। और मैं तो दोनों के पार हूं-जो दोनों को देखता, दोनों को पहचानता। तुमने कभी खयाल किया? मन में क्रोध आता है, तब भी तो कोई तुम्हारे भीतर देखता है कि क्रोध आ रहा है। तुमने उस भीतर देखने वाले को थोड़ा पहचानने की कोशिश की कौन देखता है क्रोध आ रहा है? जब क्रोध आता है तो कोई देखता है क्रोध आ रहा है। तुम देखते हो कि शरीर में जहर फैल रहा है, हिंसा की भावना उठ रही है। कौन देखता है? कौन देखता है? कोई अपमान कर देता है तो अपमान हो जाता है; तुम्हारे भीतर कोई देखता है कि मैं अपमानित अनुभव कर रहा हूं। कौन देखता है कि अपमान हो गया? तुम मुझे सुन रहे हो। मैं यहां बोल रहा हूंतुम वहां सुन रहे हो यह बोलने और सुनने के पीछे तुम्हारा साक्षी खड़ा है, जो यह देख रहा है कि तुम सुन रहे हो। और कभी कभी तुम्हारा साक्षी तुमसे यह भी कहेगा कि तुमने सुना तो फिर भी सुना नहीं, चूक गए! तुम एक पन्ना पढ़ते हो किताब का, पूरा पन्ना पढ़ जाते हों-अचानक खयाल आता है कि अरे, पढ़ते तो रहे, लेकिन चूक गए! यह किसको याद आया? पढ़ने के अतिरिक्त भी तुम्हारे पीछे कोई खड़ा है-अंतिम निर्णायक-जो कहता है, फिर से पढ़ो, चूक गए! यह जो अंतिम है तुम्हारे भीतर, यही तुम्हारा स्वरूप है। __ 'जो जैसा है उसे वैसा ही देख ले कर उसी क्षण तू बंध से मुक्त हो कर अपने स्वभाव में स्थिर होगा।' 'वासना ही संसार है। इसलिए वासना को छोड़।' संसार को नहीं! वासना संसार है, इसलिए वासना को छोड़। 'वासना के त्याग से संसार का त्याग है। अब जहां चाहे वहां रह।' बड़े क्रांतिकारी वचन हैं! अब जहां चाहे वहां रह! अब संसार में रहना है, संसार में रह; बाजार में रहना है, बाजार में रह। अब जहां चाहे वहां रह। बस, तेरा साक्षी सुस्पष्ट बना रहे, फिर कुछ और
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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