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________________ जिसमें भी थोड़ी अक्ल हो, तर्क उसी के आसपास नाचने लगता है। उससे तुम चाहो ईश्वर को सिद्ध कर दो, चाहो ईश्वर को असिद्ध कर दो। तुम चाहो आत्मा को सिद्ध कर दो, तुम चाहो आत्मा को असिद्ध कर दो। अष्टावक्र कहते हैं. बुद्धिमान पुरुष वही है जो तर्क में आस्था नहीं रखता, तर्क का त्याग कर देता है। यह देख कर कि साधुओं के, योगियों के, महर्षियों के बहुत मत हैं तो एक बात तो सच है कि मतों में सत्य नहीं हो सकता, नहीं तो बहुत मत नहीं होते। सत्य तो मतातीत है। तर्कों में सत्य नहीं हो सकता, नहीं तो तर्क का एक ही निष्कर्ष होता। तो सत्य तो तर्कातीत है। ऐसा देख कर मतों के प्रति उपेक्षा पैदा हो जाती है। और जो उस उपेक्षा को प्राप्त होता है, वह मनुष्य निश्चित ही शांति को प्राप्त हो जाता है। ___जो उपेक्षा, समता और युक्ति दवारा चैतन्य के सच्चे स्वरूप को जान कर संसार से अपने को तारता है, क्या वह गुरु नहीं है?' यह बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है। अष्टावक्र कह रहे हैं कि गुरु तेरे भीतर छिपा है। अगर तू उपेक्षा समता और युक्ति द्वारा चैतन्य के सच्चे स्वरूप को जान ले, तो मिल गया तुझे तेरा गुरु। कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरु। क्या यही गुरु नहीं है? समता से, उपेक्षा से, युक्ति दवारा स्वयं के चैतन्य स्वरूप को जान लेना-क्या यही गुरु नहीं है? क्या यही जान लेने की घटना पर्याप्त नहीं है? निवेदसमतायुक्ला यस्तारयति संसृतेः। बाहर जिसको तुम गुरु की तरह स्वीकार भी करते हो... जनक ने अष्टावक्र को स्वीकार किया है। जनक अष्टावक्र को ले आया है अपने राजमहल में और कहा. गुरुदेव, मुझे समझाएं ज्ञान क्या? मुक्ति क्या? सच्चिदानंद परमात्मा क्या? मुझे समझाएं। गुरु का यह अंतिम कृत्य है कि वह समझाए कि जो मैंने तुझे समझाया वह तेरे भीतर ही घट सकता है। गुरु की यह अंतिम कृपा है कि वह शिष्य को गुरु से भी छुटकारा दिला दे। यह आखिरी काम है। जो गुरु यह न करे, वह सदगुरु नहीं। जो गुरु शिष्य को उलझा ले और फिर अपने में ही उलझाए रखे, वह गुरु ही नहीं है। क्योंकि वह फिर इस शिष्य का शोषण कर रहा है। फिर उसकी चेष्टा यही है कि तुम शिष्य ही बने रहो।। लेकिन वास्तविक गुरु तो जल्दी ही जैसे ही तुम्हारे शिष्यत्व का काल पूरा हुआ और बोध का जागरण शुरू हुआ कहेगा कि अब, अब मेरी तरफ देखने की जरूरत नहीं, अब भीतर देख, अब आंख बंद कर। मैं तो दर्पण था। तब तक मेरी जरूरत थी, जब तक तेरी अपनी आंख साफ न थी। अब तो तू अपनी ही आंख से देख लेगा। मैंने तुझे जो दिखाया वह वही था जो तू भी देख सकता है। मेरी जरूरत पड़ी थी, क्योंकि तू बेहोश था। अब मेरी कोई जरूरत नहीं रही। 'जो उपेक्षा, समता और युक्ति दवारा चैतन्य के सच्चे स्वरूप को जान कर अपने को तारता है, क्या वही गुरु नहीं है?'
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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