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________________ सम्मोहन है। लेकिन उलझना मत। ऐसा देख कर कि यह तो सिद्धांत और दर्शनशास्त्र का जाल चला ही आ रहा है, कभी समाप्त नहीं हुआ........ दर्शनशास्त्र एक भी प्रश्न का उत्तर नहीं मिला है, और तर्क से जीवन को हल करने वाला एक आधार नहीं मिला है। और तर्क बड़ा दोगला है। और तर्क से तुम ऐसा भी सिद्ध कर सकते हो और वैसा भी सिद्ध कर सकते हो। तर्क वेश्या जैसा है। तर्क का कुछ लेना-देना नहीं। मैं एक बड़े वकील हरि सिंह गौर से परिचित था। उन्होंने सागर विश्वविद्यालय का निर्माण किया। वे बड़े वकील थे, सारी दुनिया के ख्यातिलब्ध वकील थे। प्रिवि कौंसिल में एक मुकदमा था। वे किसी महाराजा की तरफ से मुकदमा लड़ रहे थे। वे तो जिसके पक्ष में खड़े हो जाते थे, वह जीतेगा ही—यह निश्चित था। इसलिए वे कुछ ज्यादा फिक्र भी नहीं करते थे। धीरे- धीरे उनकी प्रतिष्ठा ऐसी हो गई थी कि वे जिसके पक्ष में हों, वह जीतने ही वाला है। तो विरोधी तो पस्त हो जाते थे। उनका ज्ञान - भंडार भी बहुत था । और उनके पास काम भी बहुत था। एक दिल्ली में दफ्तर था, एक पेकिंग में, एक लंदन में । भागे फिरते थे तीनों जगह । काम भी बहुत था, उलझन भी बहुत थी। रात किसी पार्टी में संलग्न थे और देर से आए और सो गए और देख नहीं पाए फाइल। सुबह अदालत में जाना पड़ा बिना फाइल देखे, तो सीधे खड़े हो गए, भूल गए कि किसके पक्ष में हैं- और विपक्षी के पक्ष में दलील देने लगे। विपक्षी के पक्ष में उन्होंने घंटे भर तक दलील की। बड़ा सन्नाटा छा गया अदालत में कि यह हो क्या रहा है! मजिस्ट्रेट भी बेचैन, विरोधी वकील भी बेचैन कि यह मामला क्या है? विरोधी भी बेचैन ! और उनका जो आदमी था, जिसके पक्ष में वे लड़ रहे थे- किसी महाराजा के वह तो पसीने-पसीने हो गया कि जब अपना ही वकील यह कह रहा है, तो अब क्या रहा? अब तो कोई उपाय नहीं है। अब तो मारे गए। आखिर उनके सेक्रेटरी ने हिम्मत जुटाई, उनके पास जा कर कान में कहा कि आप यह क्या कर रहे हैं? यह तो आपने अपने आदमी को मार डाला। आपने तो बुरी तरह उसे खराब कर दिया। अब तो यह मुकदमा जीतना मुश्किल है। उन्होंने कहा, क्या मतलब? क्या मैं विरोधी की तरफ से बोल रहा हूं? उन्होंने कहा, घबड़ा मत ! उन्होंने टाई-वाई ठीक की और मजिस्ट्रेट से कहा कि महानुभाव, अभी मैंने वे दलीलें दीं जो मेरा विरोधी वकील देगा, अब मैं इनका खंडन शुरू करता हूं । और खंडन शुरू कर दिया और मुकदमा जीत गए। और बड़ी सुगमता से जीते, क्योंकि अब विरोधी को कुछ कहने को बचा ही नहीं; वह जो कहता और जितनी अच्छी तरह से कह सकता था, उससे भी ज्यादा अच्छी तरह से उन्होंने कह ही दिया था, अब कुछ बचा ही नहीं था कहने को, और उसका खंडन भी कर दिया था। तर्क की कोई निष्ठा नहीं है। तर्क तो वेश्या है। वह तो किसी के भी साथ खड़ा हो जाता है।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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