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________________ डाले। सुबह जब पुजारी उठा तो उसने देखा कि वह साधु राह के किनारे लगे मील के पत्थर पर दो फूल चढ़ा कर हाथ जोड़े बैठा है। उसने कहा, हद हो गई! रात बुद्ध को जला बैठा, अब मील के पत्थर पर फूल चढ़ा कर बैठा है! उसने जा कर फिर उसे हिलाया और कहा, तू आदमी कैसा है? अब यह क्या कर रहा है यहां? उसने कहा, भगवान को धन्यवाद दे रहा हूं। यह उनकी ही कृपा है कि उनकी मूर्ति को जलाने की क्षमता आ सकी। और मूर्ति तो मानने की बात है। जहां मान लिया, वहां बुद्ध । वे तो सभी जगह मौजूद हैं, मगर हम सभी जगह देखने में समर्थ नहीं; हम तो एक ही दिशा में ध्यान लगाने में समर्थ हैं। तो अभी जो सामने मिल गया, यह पत्थर मिल गया, फूल भी लगे थे किनारे, सब साधन-सामग्री उन्हीं ने जुटा दी, सोचा कि अब पूजा कर लें। अब धूप भी निकल आई, दिन भी ताजा हो गया। फिर रात इन्होंने साथ दिया था। देखा नहीं, जब सर्दी पड़ी तो इन्हीं को ले कर आंच ली थी। शरीर को भी ये बचा लेते हैं, आत्मा को भी बचा लेते हैं। अब धन्यवाद दे रहे हैं। शिष्य और गुरु के बीच बड़ा अनूठा संबंध है। वह अपने सत्य को पूरा खोल कर भी रख देता है, लेकिन इसका अर्थ नहीं है कि अवज्ञा कर रहा है, या अभद्रता कर रहा है। यही भद्र संबंध है। और धन्यवाद भी उसका पूरा है। जनक पैर भी छुएंगे अष्टावक्र के, उनको बिठाया है सिंहासन पर, खुद नीचे बैठे हैं। खुद सम्राट हैं, अष्टावक्र तो कुछ भी नहीं हैं। उनको बिठा कर सिंहासन पर कहा, प्रभु! मुझे उपदेश दें। मुझे बताएं क्या है ज्ञान, क्या है वैराग्य, क्या है मुक्ति त्र: और तुम यह मत सोचना कि अष्टावक्र नाराज हैं यह ज्ञान की अभिव्यक्ति सुन कर | अगर सकुचाते जनक तो कुछ कमी रह गई। क्योंकि संकोच का मतलब है : अभी भी तुम सोच रहे हो, मैं हूं। अब कोई संकोच नहीं 'मैं' बिलकुल गया। और अष्टावक्र स्वयं ही कहते हैं. जहां 'मैं' नहीं, वहां मुक्ति है; जहां 'मैं है, वहां बंधन है। तो सब बंधन गिर गया। 'मैं' ही गिर गया तो कैसा संकोच, कैसी सकुचाहट? लेकिन तुम इससे यह मत समझ लेना कि जनक की कृतज्ञता का भाव गिर गया। वह तो और घना हो गया। इसी गुरु के माध्यम से तो, इसी गुरु के इशारे पर तो, इसी गुरु की चिनगारी से तो जली यह आग और सब भस्मीभूत हुआ । यह जो घटना घटी है महामुक्ति की यह जो समाधिस्थ हो गए हैं जनक - यह जिस गुरु की कृपा से हुए हैं जिसके प्रसाद से हुए हैं, उसके सामने कैसा संकोच ? सच तो यह है, जब गुरु और शिष्य के बीच परम संबंध जुड़ता है तो न शिष्य शिष्य रह जाता, न गुरु गुरु रह जाता, तब दोनों एक हो जाते, महामिलन हो जाता! चौथा प्रश्न :
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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