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________________ बामुश्किल आपरेशन करके बच्चे निकाले गए । जब निकाले गए तब तो वे बोलने की उम्र के आ चुके थे। डाक्टर ने पूछा कि करते क्या रहे इतनी देर तक? उन्होंने कहा, 'साहब क्या करते! मैं इनसे कहता, पहले आप; ये कहते, पहले आप!' लखनवी थे दोनों। अब पहले कौन निकले, यही अड़चन थी । पुराने दिनों में ऐसा हो जाता था। लखनऊ के स्टेशन पर गाड़ी सीटी बजा रही है। और कोई खड़े हैं अभी, चढ़ ही नहीं रहे-वे कहते हैं, 'पहले आप ! पहले आप ! अरे नहीं आपके सामने मैं कैसे चढ़ सकता हूं!' संकोच, सकुचाहट, शिष्टाचार गुरु और शिष्य के बीच अर्थ नहीं रखते। जहां प्रेम प्रगाढ़ है, वहां इन क्षुद्र बातों की कोई भी जरूरत नहीं। ये तो सब प्रेम को छिपाने के उपाय हैं। ये तो जो नहीं है उसको बतलाने के ढंग हैं। जब तुम्हारा प्रेम पूरा होता है, तो तुम कुछ भी नहीं छिपाते, तब तो तुम सब खोल कर रख देते हो। तुमने देखा, दो आदमी दोस्त होते हैं तो सब शिष्टाचार खो जाता है। लोग तो कहते हैं, जब तक दो आदमी एक-दूसरे को गाली-गलौज न देने लगें, तब तक दोस्ती ही नहीं। ठीक ही कहते हैं एक अर्थ में, क्योंकि जब तक गाली-गलौज की नौबत न आ जाए, तब तक कैसी दोस्ती ? तब तक शिष्टाचार कायम है; आइए, बैठिए, पधारिए कायम है। जब दो मित्र दोस्त हो जाते हैं, जब मित्रता घनी हो जाती है। तो आइए, बैठिए, पधारिए, सब विदा हो जाता है। तब बातें सीधी होने लगती हैं। तब दिल की दिल से बात होती है। ये ऊपर-ऊपर के खेल, समाज के नियम, उपचार - इनका कोई मूल्य नहीं रह जाता। गुरु और शिष्य के बीच तो कोई भी औपचारिकता नहीं है। लेकिन तुम हैरान होओगे कि अगर तुम गुरु-शिष्य को देखोगे तो तुम चकित होओगे । जनक कह तो रहा है ये सारी बातें, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि जनक के मन में गुरु के प्रति कृतता नहीं है, कि अहोभाव नहीं है। एक झेन फकीर मंदिर में रात रुका। रात सर्द थी और उसने मंदिर में से बुद्ध की प्रतिमा को उठा लिया; लकड़ी की प्रतिमा थी, जला कर आंच ताप ली। जब मंदिर के पुजारी की नींद खुली आधी रात को; लकड़ी की आवाज, जलने की आवाज सुन कर, तो वह भागा आया। उसने कहा कि यह तू आदमी पागल है क्या? हमने तो तुझे साधु समझ कर मंदिर में ठहरा लिया, यह तूने क्या पाप किया? तूने बुद्ध को जला डाला तो वह साधु एक लकड़ी को उठा कर बुद्ध की जली हुई मूर्ति में राख में टटोलने लगा। उस मंदिर के पुजारी ने पूछा, क्या करते हो अब? उसने कहा, मैं बुद्ध की अस्थियां खोज रहा हूं । वह पुजारी हंसा। उसने कहा, तुम निश्चित पागल हो । अरे, लकड़ी की मूर्ति में कैसी अस्थियां ? उसने कहा, जब अस्थियां ही नहीं हैं तो कैसे बुद्ध? तुम, दो मूर्तियां और रखी हैं, उठा लाओ, रात अभी बहुत बाकी है। और तुम भी आ जाओ हम तो ताप ही रहे हैं, तुम क्यों ठंड में ठिठुर रहे हो, ताप ही लो! उसने तो उसे उसी वक्त मंदिर के बाहर निकाला, क्योंकि कहीं वह दूसरी मूर्तियां और न जला
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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