SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेकिन हम अपने जीवन को 'यदियों पर खड़ा करते हैं। हमारा सब जीवन जुआरियों जैसा है - गणित, हिसाब, सौदा ! सुनते हो, पैसकल क्या कह रहा है? कि थोड़ा-सा समय प्रार्थना में गया, वही गंवाया! ऐसा आदमी प्रार्थना कर पाएगा? प्रार्थना पैदा कैसे होगी? गणित से तर्क से कहीं प्रार्थना का कोई संबंध है? प्रार्थना तो ऐसा अहोभाव है कि ईश्वर ही है और कुछ भी नहीं है। और अगर ईश्वर के मानने में सब कुछ भी जाता हो तो भी भक्त ईश्वर को मानने को राजी है। और ईश्वर को छोड़ने में अगर सब कुछ भी बचता हो, तो भी भक्त कहेगा, क्षमा करो, यह सब कुछ मुझे नहीं चाहिए। प्रार्थना एक सत्य मनोदशा होनी चाहिए, गणित नहीं । प्रेम भी एक सत्य मनोदशा होनी चाहिए, गणित नहीं। और तुम्हारे सभी भाव प्रामाणिक होने चाहिए। तो धीरे- धीरे तुम पाओगे, तुम स्वतंत्र भी होते जाते हो, सर्वतंत्र स्वतंत्र होते जाते हो और एक अपूर्व अनुशासन तुम्हारे जीवन में उतरता आता है! स्वच्छंदता नहीं आएगी तब स्वतंत्रता से । तब स्वतंत्रता से परिपूर्ण दायित्व का जन्म होगा- ऐसे दायित्व का, जिसमें कर्तव्य - भाव बिलकुल नहीं है, ऐसे दायित्व का, जिसमें प्रेम की बहती हुई धारा है! तब तुम उठोगे, बैठोगे, चलोगे, कुछ भी करोगे - सबके पीछे तुम्हारा बोध का दीया बना रहेगा । भीतर का दीया जलता रहे तो फिर हम जो भी करते हैं, उसमें प्रकाश पड़ता है। भीतर का या बुझा रहे तो हम जो भी करते हैं, उसमें हमारे अंधेरे की छाया पड़ती है। सोया हुआ आदमी पुण्य भी करे तो पाप हो जाता है। जागा हुआ आदमी पाप भी करे तो भी पुण्य ही होगा। क्योंकि जागा हुआ आदमी पाप कर ही नहीं सकता। जागरण और पाप का कोई संबंध नहीं है। तुमने देखा, अंधेरे में आदमी टटोलता है कि दरवाजा कहां है? उजाले में आदमी न टटोलता, न पूछता-उठता है और निकल जाता है । उजाले में आदमी सोचता भी नहीं कि दरवाजा कहां है, ऐसा प्रश्न भी नहीं उठता। तुम्हें यहां से उठ कर जाना होगा तो तुम सोचोगे थोड़े ही तुम योजना थोड़े ही बनाओगे कि ऐसे चलें, ऐसे चलें, फिर यहां दरवाजा खोजें-बस, तुम उठोगे और चल पड़ोगे ! तुम्हें दिखाई पड़ रहा है। सर्वतंत्र स्वतंत्र व्यक्ति वही हो सकता है, जिसके भीतर प्रकाश जला है। संन्यासी को हमने सर्वतंत्र स्वतंत्र कहा है। उसे हमने कोटिहीन कोटि माना है। अष्टावक्र उसी की चर्चा कर रहे हैं - उसी परम संन्यास की, परम दशा की जहां न भोगी, न त्यागी, दोनों नियम काम नहीं करते हैं; न भोग न त्याग, जहां केवल साक्षी- भाव पर्याप्त है। अष्टावक्र कह रहे हैं कि साक्षी- भाव हो तो फिर तू कहीं भी रह, कैसे भी रह, जैसे हो वैसे रह । साक्षी- भाव है तो सब सध जाएगा, सब ठीक हो जाएगा। एक बात सम्हल जाए- ध्यान सम्हल जाए, साक्षी भाव सम्हल जाए - सब अपने-आप सम्हल जाता है; शेष सब अपने- आप सम्हल जाता है। और निश्चित ही तब जो एक अनुशासन होता है, उसके सौंदर्य की महिमा अपूर्व है। तब जो अनुशासन होता है वह प्रसादरूप है। तब उसमें आरोपण जरा भी नहीं, चेष्टा जरा भी नहीं । तुम कुछ करना चाहिए, इसलिए नहीं करते। जो होता है, होता है। जो होता है, सुंदर और शुभ है।
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy