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________________ जनक की यह जो ध्यान की घटना घटी है, अष्टावक्र परीक्षा लिए, अब उसे प्रलोभन देते हैं। यह प्रलोभन और भी गहरी परीक्षा है। अब वे कहते हैं कि फिर ठीक, जब तुझे ज्ञान ही हो गया जनक, तो अब... अब छोड़, अब त्याग में उतर जा। अगर जनक इसमें फंस गया तो असफल हुआ तो गहरी परीक्षा में असफल हुआ। जनक की जगह कोई भी साधारण व्यक्ति होता तो उलझ जाता झंझट मैं। क्योंकि अष्टावक्र इन शब्दों में बात कर रहे हैं कि पकड़ना बहुत मुश्किल है। सुनो उनके सूत्र। अष्टावक्र ने कहा : 'तेरा किसी से भी संग नहीं है। तूने घोषणा कर दी असंग होने की। ' 'तेरा किसी से भी संग नहीं है, इसलिए तू शुद्ध है। तू किसको त्यागना चाहता है? इस प्रकार देहाभिमान को मिटाकर तू मोक्ष को प्राप्त हो।' बड़ा उलझा हुआ सूत्र है। उकसाते हैं बड़े बारीक नाजुक रास्ते से। पूछते हैं: तू शुद्ध है, तेरा किसी से भी कोई संग नहीं है-फिर भी जनक, मैं देखता हूं तेरे भीतर त्याग की लहरें उठ रही हैं। तू किसको त्यागना चाहता है? ठीक, अगर त्यागना ही चाहता है तो इस प्रकार के देहाभिमान को त्याग कर तू मोक्ष को प्राप्त हो जा। 'देहाभिमान को त्याग कर मोक्ष को प्राप्त हो जा!' एक तो कहते हैं कि मैं तेरे भीतर त्याग की लहर उठते देखता हूं धीमी तरंग है शायद तूने भी अभी पहचानी न हो; शायद तुझे भी अभी पहचानने में समय लगे। तेरे गहरे अतल में उठ रही है एक लहर, जो थोड़ी-बहुत देर बाद तेरी चट्टान से टकराएगी चैतन्य की, और तू जान पायेगा। अभी शायद तुझे खबर भी नहीं। जब मनुष्य के भीतर कोई विचार उठता है तो वह चार खंडों में बांटा जा सकता है। जब तुम बोलते हो, वह आखिरी बात है। बोलने के पहले तम्हारे कंठ में होता है। तम जानते हो। साफ-साफ होता है, क्या बोलना है। तुम भीतर तो परिचित हो गए, भीतर तो तुमने बोल लिया। अभी बाहर प्राट नहीं किया है। वह तीसरी अवस्था है। उसके पहले दूसरी अवस्था होती है जब धुंधला होता है। तुम्हें साफ नहीं होता कि क्या है। ऐसा भी हो सकता है, वैसा भी हो सकता है। शायद हो शायद न हो! रूपरेखा स्पष्ट नहीं होती। सुबह के धुंधलके में छिपा होता है। मगर थोड़ी-थोड़ी भनक पड़ती है। लगता है कुछ है। थोड़ी आवाज आनी शुरू होती है। वह दूसरी अवस्था है। उसके पहले एक पहली अवस्था है. जब तुम्हें बिलकुल ही पता नहीं होता, धुंधलके का भी पता नहीं होता। गहरी अंधेरी रात छाई होती है। लेकिन तुम्हारे भीतर वह पहली अवस्था जब उठती है, तब भी गुरु देख लेता है। अष्टावक्र देख रहे हैं कि जनक की पहली अवस्था में विचार की कोई तरंग है। थोड़ी देर बाद दूसरी अवस्था होगी। थोड़ा धुंधला- धुंधला आभास होगा। फिर तीसरी अवस्था होगी. विचार प्रगाढ़ होगा, स्पष्ट होगा। फिर चौथी अवस्था होगी. जनक उदघोषणा करेंगे कि मैंने सब छोड़ा, मैंने सब त्यागा, अब मैं जाता
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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