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________________ वन की ओर। इसके पहले कि विचार यहां तक पहुंच जाए.. क्योंकि यहां तक पहुंच कर फिर लौटना मुश्किल हो जाता है। विचार से मुक्त होने की प्रक्रिया यही है कि पहली अवस्था में विचार को अगर पकड़ लिया जाए तो तुम कभी उसके बंधन में नहीं पड़ते। तुमने बीज में पकड़ लिया वृक्ष को, वृक्ष पैदा ही नहीं हो पाता। अधिक लोग तो जब वृक्ष न केवल पैदा हो जाता है, उसमें फल लग जाते, न केवल फल लग जाते, बल्कि वृक्ष हजारों बीजों को अपनी तरफ फेंक देता है भूमि में-तब सजग होते हैं, तब बड़ी देर हो गई। तब तुम इस वृक्ष को उखाड़ भी दो तो भी फर्क नहीं पड़ने वाला, क्योंकि हजारों बीज फेंक चुका। समय आने पर वे फूटेंगे, हजारों वृक्ष बनेंगे। और तुम्हारी पुरानी आदत है, तुम तभी पकड़ोगे जब वृक्ष बन जाएंगे, बीज गिर जाएंगे, तब तुम फिर पकड़ोगे, फिर तुम काट देना। तुम वृक्षों को काटते रहना और वृक्षों का कोई अंत न होगा। वृक्षों की नई श्रृंखलाएं आती चली जाएंगी। ऐसा ही हमारे जीवन में होता है। बुद्ध ने विपस्सना का प्रयोग दिया है अपने भिक्षुओं को। विपस्सना का कुल अर्थ इतना ही है कि तुम इस भांति भीतर सजग होते जाओ कि धीरे- धीरे तुम्हें पहली अवस्था में विचार दिखाई पड़ने लगे। जब पहली अवस्था में विचार दिखाई पड़ता है, बड़ी सरल है बात। इतना ही कह देना काफी है : 'बस क्षमा कर! नहीं इच्छा पड़ने की इसमें। ' इतना भाव ही कि 'नहीं' पर्याप्त है और बीज दग्ध हो जाता है। दूसरी अवस्था में थोड़ा कठिन है। थोड़ा संघर्ष करना पड़ेगा। तीसरी अवस्था में और भी कठिन है। संघर्ष करोगे तो भी जीत पाओगे, संदिग्ध छै। चौथी अवस्था में तो बहुत मुश्किल है। घोषणा हो चुकी। तुम फंस गए। लौटना करीब करीब असंभव हो जाता है। अब तो फल भोगना पड़ेगा, क्योंकि विचार कर्म बन गया। पहले विचार केवल भाव होता। उसके पहले शून्य में बीज-मात्र होता, संभावना मात्र होता। फिर भाव बनता, फिर विचार बनता, फिर अभिव्यक्ति बनता। अभी जनक को शायद पता भी न हो, या शायद पता चलना शुरू हुआ हो; लेकिन अष्टावक्र को दिखाई पड़ा है। 'तेरा किसी से भी संग नहीं जनक, तू शुद्ध है! लेकिन फिर भी किसको त्यागना चाहता है?' . एक काम कर, अगर त्यागना ही है तुझे, अगर त्यागने की जिद ही है तो... 'देहाभिमान को मिटा कर तू मोक्ष को प्राप्त हो!' बड़ा गहरा जाल है! अगर जनक इतना भी कह दे कि हा, देहाभिमान का त्याग करना है, तो बात तय हो जाएगी कि कुछ त्याग करना है इसे। कुछ भी त्याग करना हो तो अज्ञान शेष है। फिर अभी ज्ञान की क्रांति नहीं घटी। दीया जल गया और तुम कहो, अंधेरे का त्याग करना है, तो फिर दीया जला नहीं! दीया जल जाने पर अंधेरे का कैसा त्याग? दीया जल गया तो अंधेरा तो जा ही चुका, त्याग हो ही चुका। त्याग करना हो तो गलत, त्याग हो जाए तो सही। जो करना पड़े तो कर्ता बन जाते हैं हम; जो हो जाए तो साक्षी रहते हैं। भोग हुआ त्याग हुआ। न हमने भोग किया न हमने
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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