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________________ ली। गुरु जितनी परीक्षाएं खड़ी करे, स्वीकार कर लेने में ही सार है। क्योंकि तुम जितना समझ सकते हो उतना ही तुम्हें समझाया जा सकता है। कुछ है, जो तुम्हें कराया जायेगा। यह परीक्षा तो एक सिचुएशन, एक स्थिति थी। गुरु ने तो एक स्थिति पैदा की। इस स्थिति में कैसा जनक प्रत्युत्तर लाते हैं, क्या प्रतिध्वनि होती है उनके भीतर - उस प्रतिध्वनि का एक मौका दिया। इससे अतीत का तो पता चल ही जायेगा, वह तो बिना इसके भी पता चल जाता - लेकिन इससे भविष्य भी सुनिश्चित होगा । एक रेखा निर्मित होगी, आयाम साफ होगा। ऐसे प्रश्न एकाध मित्र ने नहीं, अनेकों ने पूछे हैं। मैंने उनके उत्तर अब तक नहीं दिये थे, क्योंकि मैं चाहता था जनक का उत्तर पहले तुम सुन लो । जैसे मैंने 'स्वभाव' की पीछे चर्चा की। एक मित्र ने आ कर कहा कि आपने ऐसी बात की कि कहीं स्वभाव दुखी न हो जाये। मैंने कहा, दुखी हो जाये तो हुए अनुत्तीर्णा 'कि कहीं स्वभाव समझे न और नाराज न हो जाये; क्रुद्ध न हो जाये। ' क्रुद्ध हुए, तो फिर मैंने जो कहा कि हाथी तो निकल गया, पूंछ रह गयी-पूरा सिर तो उन्होंने घुटा लिया, चोटी रह गयी, तो हाथी तो निकल गया, पूंछ अटक गयी तो फिर पूंछ के द्वारा पूरे स्वभाव अटक गये! नहीं, लेकिन स्वभाव ने बुरा नहीं माना, न दुख लिया। समझने की चेष्टा की। ऐसी चेष्टा जारी रहे, तो हाथी तो निकल ही गया है, किसी दिन पूंछ भी निकल जायेगी । स्वभाव ने ठीक किया है। हरि ओम तत्सत्!
SR No.032110
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year
Total Pages407
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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