SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 307
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शरीर को गलाया - सताया था, सूखे, हड्डियां हो गये थे। उन्होंने पूछा, 'तुम्हें क्या हुआ? तुम पर कौन-सी विपदा पड़ी?' उन्होंने कहा, हम स्वर्ग की तैयारी कर रहे हैं। नर्क का भय है तो हम स्वर्ग की तैयारी कर रहे हैं। हम पुण्य-अर्जन कर रहे हैं। मगर फिर भी डर लगता है, कहीं चूक तो न जायेंगे! सब दांव पर लगा दिया है, जीवन दांव पर लगा दिया है; लेकिन स्वर्ग ले कर रहेंगे, बहिश्त में पहुंच कर रहेंगे। मगर उसी चिंता में हम परेशान भी हैं, तनाव भी मन में बना है। जीसस और आगे बढ़े। उन्होंने एक तीसरे वृक्ष के नीचे कुछ लोगों को बैठे देखा, जो बड़े मस्त थे। उनकी हालत बिलकुल अलग थी। न तो नर्क से घबड़ाये जैसे लोग वैसे भी न थे; स्वर्ग के लोभ से भरे लोग, वैसे भी न थे । वे बड़े मस्त थे । वे गीत गुनगुना रहे थे, नाच रहे थे, आनंद-मग्न थे । उन्होंने पूछा, 'तुम्हें क्या हुआ ? तुम बड़े खुश हो ! तुम पर कोई विपत्ति नहीं आई?' उन्होंने कहा कि नहीं, क्योंकि हमने जान लिया कि न स्वर्ग है न नर्क है । सब मन का खेल है। दुख-सुख दोनों ही मन की धारणायें हैं। दुख का आत्यंतिक रूप नर्क है; सुख का आत्यंतिक रूप स्वर्ग है। सुख-दुख दोनों मन में हैं, स्वर्ग-नर्क भी दोनों मन में हैं। ऐसा जो जान लेता है कि सभी मन में हैं, वही मुक्त है। इस मुक्ति की आखिरी घोषणा जनक करते हैं: मेरा बंध या मोक्ष नहीं है। बंधन भी झूठे हैं, तो मोक्ष कैसा ? बंधन हैं ही नहीं, तो मोक्ष कैसा ? दोनों असत्य हैं। 'आश्रय-रहित हो कर भ्रांति शांत हो गई है । ' अब मेरा कोई आश्रय नहीं है । अब मैं किसी आशा के सहारे नहीं जी रहा । और जब आशा नहीं है तो निराशा नहीं होती। 'आश्रय-रहित होकर भ्रांति शांत हो गई है। आश्चर्य है कि मुझमें स्थित हुआ जगत वास्तव में मुझमें स्थित नहीं है।' यह आश्चर्य की बात है कि सारा जगत है, फिर भी मैं अकलुषित, फिर भी मैं निरंजन, फिर भी मैं पार हूं ! एक बौद्ध कथा है, दो भिक्षु एक नदी से पार होते कि बूढ़े भिक्षु ने देखा कि एक युवती नदी पार करना चाहती है, तो वह घबड़ा गया। नदी गहरी है, शायद युवती कहे कि मेरा हाथ सम्हाल लो। वह अनजान मालूम होती है। सुंदर युवती है ! वह उसके पास से निकला, युवती ने कहा भी कि मुझे नदी के पार जाना है, क्या आप मुझे सहारा देंगे? उसने कहा, मुझे क्षमा करो, मैं भिक्षु हूं, स्त्री को मैं छूता नहीं ! और उसके हाथ-पैर कंप गये और वह भागा तेजी से नदी पार कर गया। बूढ़ा आदमी! बहुत दिन का दबाया हुआ काम, भीतर फुफकार मारने लगा वह; यह खयाल ही कि स्त्री का हाथ पकड़ ले, सपनों को जन्म देने लगा। वह तो नदी पार कर गया घबड़ाहट में। सोचा, भगवान को धन्यवाद दिया कि चलो बचे, एक झंझट आती थी, एक गड्ढे में गिरने से बचे ! तब पीछे लौट कर देखा तो बड़ा हैरान हो गया। हैरान भी हुआ, थोड़ा ईर्ष्या से भी भरा, थोड़ी जलन भी पैदा युवा संन्यासी पीछे आ रहा था, वह लड़की को कंधे पर बिठा कर नदी पार करवा रहा है। कंधे पर बिठा कर! हाथ पकड़ना भी एक बात थी, स्पर्श भी वर्जित है, और मैं तो बूढ़ा हूं, और दुख का मूल द्वैत है 293
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy