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________________ यह जवान है, और यह अभी नया-नया दीक्षित हुआ है ! और यह क्या पाप हो रहा है? फिर दो मील तक दोनों चलते रहे। आश्रम पहुंचने के पहले तक बूढ़ा फिर बोला नहीं, बहुत नाराज था, आगबबूला था। नाराजगी में ईर्ष्या भी थी, नाराजगी में रस भी था, क्रोध भी था, अपने को ऊंचा और धार्मिक मानने की अस्मिता भी थी; और इसको निकृष्ट और अधार्मिक मानने का भाव भी था। सभी कुछ मिश्रित था। सीढ़ियां जब वे चढ़ने लगे आश्रम की, तब बूढ़े से न रहा गया; उसने कहा कि सुनो मुझे गुरु से जा कर कहना ही पड़ेगा, क्योंकि यह तो नियम का उल्लंघन हुआ है। और तुम युवा हो, और तुमने स्त्री को कंधे पर बिठाया, स्त्री सुंदर भी थी ! उस युवा ने कहा, आप भी आश्चर्य की बात कर रहे हैं। मैं तो उस स्त्री को नदी के किनारे उतार भी आया, क्या आप उसे अब भी अपने कंधे पर लिये हुए हैं ? अब भी ! आप भूले नहीं ? दो मील पीछे की बात, आप अभी खींचे लिये जा रहे हैं ? ध्यान रखना, यह संसार, है तुम्हारे पास, तुम में स्थित, तुम इसमें स्थित; मगर ऐसा भी जीने ढंग है कि न तुम संसार को छुओ, न संसार तुम्हें छू पाये। तुम ऐसे गुजर जाओ, अस्पर्शित, क्वांरे के क्वांरे। यह कालख तुम्हें लगे न । ऐसे गुजरने का ढंग है— उस ढंग का नाम ही साक्षी है। ‘शरीर सहित यह जगत कुछ नहीं है— अर्थात न सत है और न असत है और आत्मा शुद्ध चैतन्य - मात्र है। ऐसा निश्चय जान कर अब किस पर कल्पना को खड़ा करें ?' अब कहां अपनी कल्पना को रोपें ? सब आश्रय गिर गये । न सुख की कोई कामना है, और न दुख का कोई भय है । न कुछ होना है, न कुछ बचना है। न कहीं जाना है, न कुछ बनना है। सब आश्रय गिर गये, अब कल्पना को कहां खड़ा करें ? कुछ लोग धन पर कल्पना को खड़ा किये हुए हैं - वह उनका आश्रय है। वे हमेशा धन ही नि रहते हैं। वे नींद में भी रुपये गिनते रहते हैं। रुपये की खनकार ही एकमात्र संगीत है, जिसे वे संगीत मानते हैं। कुछ लोग हैं पद के दीवाने; वह बस उनकी कुर्सी ऊपर उठती जाये, इसकी ही फिक्र में लगे हैं। बड़ी से बड़ी कुर्सी पर बैठ जायें, चाहे फांसी क्यों न लगे बड़ी कुर्सी पर, कोई हर्जा नहीं, मगर कुर्सी बड़ी होनी चाहिए। वह उनका आश्रय है। फिर कुछ लोग हैं, जो स्वर्ग की कामना कर रहे हैं, कि स्वर्ग में बैठेंगे, यहां क्या रखा है ? यहां की कुर्सियां आज मिलती हैं, कल छिन जाती हैं, यहां बैठने में क्या सार है? बैठेंगे स्वर्ग में, वहां कल्पवृक्ष के नीचे बैठ कर भोगेंगे दिल खोल कर । फिर समय का कोई बंधन नहीं, सीमा नहीं है। मगर ये सब आश्रय हैं मन के । 'ऐसा निश्चय जान कर अब किस पर कल्पना को खड़ा करें ?' 'यह शरीर, स्वर्ग, नर्क, बंध, मोक्ष और भय भी कल्पनामात्र हैं। मुझे उनसे क्या करना है? मैं तो शुद्ध चैतन्य हूं।' खूब जागरण की घटना घटी जनक को । अष्टावक्र की मौजूदगी में विमर्श पैदा हुआ। अष्टावक्र के दर्पण में जनक ने अपना चेहरा देखा, उसे आत्मस्मृति आई | अनूठी घटना घटी। बड़ी मुश्किल से ऐसा होता है कि ऐसा गुरु और ऐसा शिष्य मिल जाये। शिष्य तो बहुत, गुरु 294 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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