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________________ ये मेरे साथ न आएं, मैं नहीं आ सकता; क्योंकि पैसा ये रखते हैं, पैसा मैं नहीं छूता । इनको सुबह कहीं और जाना है, तो मैं कल सुबह तो न आ सकूंगा । यह भी खूब मजा हुआ ! पैसे की जरूरत तो तुम्हें है ही, फिर तुम अपनी जेब में रखो कि दूसरे की जेब में, इससे क्या फर्क पड़ता है ? और यह तो और बंधन हो गया। इससे तो वे ही ठीक जो अपनी जेब में रखते हैं; कम-से-कम जहां जाना है, जा तो सकते हैं! अब यह एक अजीब मामला गया कि यह आदमी जब तक साथ न हो, तब तक तुम आ नहीं सकते, क्योंकि टैक्सी में पैसे देने पड़ेंगे - पैसा हम छूते नहीं हैं! तो तुम अपना पाप इस आदमी से करवा रहे हो ? अपना पाप खुद करो। यह बड़े मजे की बात है कि टैक्सी में तुम बैठोगे, नरक यह जायेगा ! इस पर कुछ दया करो। यह भोगी-योगी का खूब जोड़ है ! तुम्हारे सारे त्यागी भोगियों से बंधे जी रहे हैं। और तुम्हारा भोगी भी त्यागियों से बंधा जी रहा है, क्योंकि वह त्यागी के चरण छू कर सोचता है, 'आज त्यागी नहीं तो कम-से-कम त्यागी के चरण तो छूता हूं, चलो कुछ तो तृप्ति, कुछ तो किया ! आज नहीं कल, मैं भी त्यागी हो जाऊंगा। लेकिन अभी त्यागी की पूजा-अर्चना तो करता हूं!' जैन कहते हैं, कहां जा रहे हो ? - साधु जी की सेवा करने जा रहे हैं ! सेवा करके सोचते हैं कि चलो, कुछ तो लाभ-अर्जन कर रहे हैं। उधर साधु बैठे हैं, वे राह देख रहे हैं, कि भोगी जी कब आयें ! इधर भोगी जी हैं, वे देखते हैं कि साधु जी कब गांव में पधारें! तो भोगी जी और साधु जी, दोनों एक ही सिक्के के पहलू हैं। तुम जरा सोचो, अगर भोगी साधुओं के पास जाना बंद कर दें, कितने साधु वहां बैठे रहेंगे ! वे सब भाग खड़े होंगे। कौन इंतजाम करेगा, कौन व्यवस्था करेगा ! वे सब जा चुके होंगे। लेकिन भोगी साधु को सम्हालता है; साधु भोगी को सम्हाले रखता है। यह पारस्परिक है। वास्तविक ज्ञानी न तो त्यागी होता, न भोगी होता। वह इतना ही जान लेता है कि मैं सिर्फ साक्षी हूं । अब पैसे दूसरे की जेब में रखो कि अपनी जेब में रखो, क्या फर्क पड़ता है? वह साक्षी है । हो, तो साक्षी है; न हो, तो साक्षी है। गरीब हो, तो साक्षी है; अमीर हो, तो साक्षी है। साक्षी में थोड़े ही गरीबी-अमीरी से फर्क पड़ता है ! क्या तुम सोचते हो भिखमंगा साक्षी होगा तो उसका साक्षीपन थोड़ा कम होगा, और सम्राट साक्षी होगा तो उसका साक्षीपन थोड़ा ज्यादा होगा ? साक्षीपन कहीं कम-ज्यादा होता है? गरीब हो कि अमीर, स्वस्थ हो कि अस्वस्थ, पढ़ा-लिखा हो कि बेपढ़ा-लिखा, सुंदर हो कि कुरूप, ख्यातिनाम हो कि बदनाम – इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । साक्षी कुछ ऐसी संपदा है, जो सभी के भीतर बराबर है, उसमें कुछ कम-ज्यादा नहीं होता । हर स्थिति के हम साक्षी हो सकते हैं— सफलता के, विफलता के; सम्मान के, अपमान के । साक्षी बनो, इतना ही अष्टावक्र का कहना है। लेकिन अगर पाओ कि कठिन है साक्षी बनना और अभी तो विधि का उपयोग करना होगा, तो विधि का उपयोग करो, घबड़ाओ मत। विधि का उपयोग कर-करके तुम इस योग्य बनोगे कि विधि के भी साक्षी हो जाओगे । इसलिए तो मैं कहता हूं, ध्यान करो, कोई फिक्र नहीं। क्योंकि मैं जानता हूं, ध्यान न करने से तुम्हें साक्षी भाव नहीं आने वाला, ध्यान न करने से केवल तुम्हारे विचार चलेंगे। तो विकल्प 'ध्यान और साक्षी' में थोड़े ही है; विकल्प 'विचार नियंता नहीं—साक्षी बनो 211
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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