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________________ भूल कर संन्यास न लेंगे ! अष्टावक्र से कुछ और सीखोगे ? लोग पास आ जाते हैं। वे कहते हैं, 'अब ध्यान छोड़ दें? क्योंकि अष्टावक्र कहते हैं, ध्यान में बंधन है।' धन छोड़ोगे ? पद छोड़ोगे ? सिर्फ ध्यान...! और ध्यान अभी लगा ही नहीं; छोड़ोगे खाक? ध्यान होता और तुम कहते छोड़ दें, तो मैं कहता, छोड़ दो! मगर जिसका ध्यान लग गया, वह कहेगा ही नहीं छोड़ने की बात; वह छोड़ने पकड़ने के बाहर गया । वह अष्टावक्र को समझ लेगा, आनंदित होगा, गदगद होगा। वह कहेगा, ठीक, बिलकुल बात यही तो है। ध्यान में ध्यान ही तो छूटता है। संन्यास में बंधन ही तो छूटते हैं। संन्यास कोई बंधन नहीं है। यह तो केवल और सारे बंधनों को छोड़ने का एक उपाय है। अंततः तो यह भी छूट जायेगा । ऐसा ही समझो कि पैर में कांटा लगा, तो तुम दूसरा कांटा उठा कर पहले कांटे को निकाल लेते हो। दूसरा कांटा भी कांटा है; लेकिन पहले कांटे को निकालने के काम आ जाता है । फिर तो तु दोनों को फेंक देते हो । फिर दूसरे कांटे को संभाल कर थोड़े ही रखते, कि इसने बड़ी कृपा की कि पहले कांटे को निकाल दिया ! फिर ऐसा थोड़े ही करते कि अब पहला कांटा जहां लगा था, वहां दूसरा लगा लो, यह बड़ा प्रिय है ! संन्यास तो कांटा है। संसार का कांटा लगा है, उसे निकालने का एक उपाय है। अगर तुम बिना कांटे के निकाल सको, तो बड़ा शुभ । अष्टावक्र की बात समझ में आ जाये, तो इससे शुभ और क्या हो सकता है ! फिर किसी संन्यास की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन जरा सोच लेना, कहीं यह बेईमानी हो ! अगर बेईमानी हो, तो हिम्मत करो और संन्यास में उतरो । कभी ऐसी घड़ी आयेगी, जब संन्यास भी छोड़ने के तुम योग्य हो जाओगे । लेकिन छोड़ना क्या है? जब समझ आती है, तो छोड़ने को कुछ भी नहीं - सब छूट जाता है । यही तो जनक ने कहा कि प्रभु, यह शरीर भी छूट गया ! अभी जनक शरीर में हैं, शरीर छूट नहीं गया; लेकिन जनक कहते हैं, यह शरीर भी छूट गया ! यह सारा संसार भी छूट गया ! यह सब छूट गया ! मैं बिलकुल अलिप्त, भावातीत हो गया ! कैसी कुशलता आपके उपदेश की ! यह कैसी कला ! कुछ भी हुआ नहीं, न महल छूटा, न संसार छूटा, न शरीर छूटा — और सब छूट गया ! - जिस दिन तुम समझोगे तो फिर कुछ छोड़ने को नहीं है- -न संसार और न संन्यास ! छोड़ने की बात ही उस आदमी की है, जो सोचता है कुछ पकड़ने को है। त्याग भी भोग की छाया है। त्यागी भी भोगी का ही शीर्षासन करता हुआ रूप है। जब भोग है, त्याग भी जाता है। वे दोनों साथ रहते हैं, साथ जाते हैं। इसलिए तो तुम देखते हो, भोगियों को त्यागियों के पैर पड़ते! वे साथ-साथ हैं। आधा काम त्यागी कर रहे, आधा भोगी कर रहे—दोनों एक-दूसरे के साथ जुड़े हैं। न भोगी जी सकते त्यागी के बिना, न त्यागी जी सकते भोगी के बिना। तुमने देखा यह षड्यंत्र ! एक आदमी मेरे पास आया, कहा कि ध्यान सीखना है। वे संन्यासी थे - पुराने ढब के संन्यासी ! तो मैंने कहा कि ठीक है, कल सुबह ध्यान में आ जाओ। उन्होंने कहा, वह तो जरा मुश्किल है। मैंने 'क्यों, इसमें क्या मुश्किल है ?' उन्होंने कहा कि मुश्किल यह है कि ये मेरे साथ जो हैं, जब तक कहा, 210 अष्टावक्र: महागीता भाग-1
SR No.032109
Book TitleAshtavakra Mahagita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages424
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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