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________________ भेदों से बहुत से अभिग्रह कहे हुए हैं। इन भगवंत ने जो अभिग्रह लिया है, वह विशिष्ट ज्ञान के अभाव में जाना नहीं जा सकता। पश्चात् राजा ने नगरी में आघोषणा कराई कि 'अभिग्रहधारी वीरप्रभु जब भिक्षा लेने आवें तब लोगों को अनेक प्रकार की भिक्षा देनी।' राजा की आज्ञा से और श्रद्धा से प्रभु ने किसी भी स्थान से भिक्षा ग्रहण नहीं की। इस प्रकार आहार बिना रहते हुए भी विशुद्ध ध्यान में लीन प्रभु अम्लान मुख से रहते थे और लोग दिनों दिन लज्जा और खेद से विशेष रूप से आकुलव्याकुल हो उनको देखते रहते थे। (गा. 475 से 497) इसी समय में शतानीक राजा ने सैन्य के साथ चक्रवात के समान वेग से एक रात्रि में जाकर चंपानगरी को घेर लिया। चंपापति दधिवाहन राजा उनसे भयभीत होकर भाग गये। क्योंकि “अति बलवान पुरुष से अवरुद्ध मनुष्य का पलायान के सिवा अन्य कोई स्वरक्षण का उपाय नहीं है। पश्चात् शतानीक राजा ने 'इस नगरी में से जो लेना हो सो ले लो' ऐसी अपने सैन्य में अघोषणा कराई, तो उसके सैन्य के सुभट चंपानगरी को लूटने लगे। दधिवाहन राजा की धारिणी नाम की रानी को, उसकी वसुमती नाम की पुत्री सहित कोई ऊँटवाला हरण करके ले गया। शत्रुरूप कुमुद में सूर्य के जैसा शतानीक राजा कृतार्थ होकर सैन्य के परिवार के साथ कौशांबी नगरी वापिस आया। धारिणी देवी के रूप से मोहित ऊँटवाला सुभट लोगों के सामने उच्च स्वर से कहने लगा कि यह जो प्रोढ रूपवती स्त्री है, वह मेरी स्त्री होगी और इस कन्या को कौशांबी के चौटै में जाकर बेच दूंगा। यह सुनकर धारिणी देवी ने मन में सोचा कि 'मैं चंद्र से भी निर्मल ऐसे वंश में जन्मी हूँ और जैन धर्म में उत्पन्न हुए दधिवाहन राजा की पनि हूँ और जैन धर्म मुझे परिणमित हुआ है। ऐसे वचन सुनकर भी मैं पाप का भाजन होकर अभी भी जीवित हूँ, इससे मुझे धिक्कार है। अरे स्वभाव से चपल ऐसा जीव! अभी भी इस देह में कैसे बैठा है ? यदि तू स्वयमेव नहीं निकलेगा तो नीड़ (घोंसले) में से पक्षी को निकाले वैसे मैं तुझे बलात्कार ही निकालूंगी। इस तिरस्कार से मानो उद्वेग पाए वैसे खेद से फटे हुए हृदय से क्षणभर में ही उसके प्राण निकल गये। उसकी मृत्यु हुई जानकर ऊंटवाले सुभट को भी खेद हुआ कि 'ऐसी सती स्त्री के लिए मैंने कहा कि “यह मेरी पत्नि होगी" यह मैंने उचित नहीं किया, मुझे धिक्कार है! अंगली से बताए हुए कुष्मांडफल (कोले) की तरह मेरी दुष्ट वाणी से यह सती जैसे मरण पाई, वैसे कहीं यह कन्या भी मर न 104 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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