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________________ प्रतिदिन आहार ग्रहण करने हेतु अपने नगर में आते हैं और कोई अपूर्व अभिग्रह के कारण भिक्षा लिए बिना लौट जाते हैं। इसलिए हे महामंत्री! आप प्रभु का वह अभिग्रह ज्ञात कर लो। यदि नहीं जान पाते हो तो अन्य के चित्त को पहचानने वाली आपकी बुद्धि वृथा है। सुगुप्त ने कहा 'हे प्रिय! उन प्रभु का अभिग्रह किसी भी प्रकार से जानने का मैं प्रातः काल में प्रयत्न करूंगा। उस समय मृगावती रानी की विजया नामक छड़ीदार की स्त्री वहाँ आई थी। उसने इन दम्पत्ती की बात सुन ली। उसने यह सब बात अपनी स्वामिनी मृगावती को जाकर कह सुनाई। यह सुनकर मृगावती को भी अत्यन्त खेद हुआ। शतानिक राजा ने संभ्रमता से उसके खेद का कारण पूछा। तब मृगावती भृकुटी ऊँची करके अंतर के खेद और क्षोभ के उद्गार से व्याप्त ऐसी वाणी से बोली कि“राजा तो इस चराचर जगत् को अपने बातमीदारों से जान सकते हैं और आप तो एक शहर को भी जान सकते नहीं है, तो उनके पास क्या बात करनी? राज्य सुख में ही प्रमादी बने हे नाथ! तीन लोक में पूजित चरम तीर्थंकर श्री वीर भगवंत इसी गांव में विचर रहे हैं, यह आप जानते है? वे कोई अभिग्रह धारण करके घर-घर भिक्षाटन कर रहे हैं। परंतु भिक्षा ग्रहण किये बिना वापिस लौट जाते हैं, यह आप जानते हैं ? मुझे, आपको और आपके अमात्य को धिक्कार है, कि जहाँ वीरप्रभु अज्ञात अभिग्रह से इतने दिनों तक भिक्षा के बिना विचर रहे हैं।' राजा ने कहा- 'हे शुभाशये! हे धर्मचतरे! धन्यवाद शाबास है तुमको। जो तुमको मुझ जैसे प्रमादी को योग्य समय पर शिक्षा दी। अब प्रभु का अभिग्रह ज्ञात करके प्रातः काल में उनको पारणा कराऊंगा। ऐसा कहकर शीघ्र ही उन्होंने मंत्री को बुलाया एवं कहा कि हे भद्र! मेरी नगरी में श्री वीरप्रभु चार महिने हुए आहार के बिना विचर रहे हैं। इससे अपने को धिक्कार है। इससे आपको किसी भी प्रकार से उनका अभिग्रह ज्ञात कर लेना है कि जिससे मैं प्रभु का अभिग्रह पूर्ण करवा कर मेरी आत्मा की शुद्धता प्राप्त करूं। मंत्री बोले- हे महाराज! उनका अभिग्रह जाना जा सके, ऐसा नहीं है। मैं भी उसी से खेदित हूँ। इसके लिए कुछ उपाय करना चाहिए। पश्चात् राजा ने धर्मशास्त्र में विचक्षण ऐसे तथ्यकंदी नाम के उपाध्याय को बुलाकर कहा कि, 'हे महामति! आपके धर्मशास्त्र में सर्व धर्मों के आचार कथित है, तो उसमें से श्री जिनेश्वर प्रभु के अभिग्रह की बात ज्ञात करो।' उपाध्याय बोले कि, 'हे राजन्! महर्षियों ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व) 103
SR No.032102
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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