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________________ अमर सुख्ख पामेव । साते सागर आउ तमु, जाई तिहांथी ॥ ३४ ॥ केवलि महिमा नेमिनाह पूछयो अलवेसर, अम्हे इहथी किहां हुस्युं चवी भाषे तिथ्थेसर । भरते मिथला नयरे एक जयसेन नरिंदह, हुस्यें पुत्र सुभ तासु गुणवंत बीजो कहिये तेह || मयणरेह जुगबाहु सुत, हुस्ये सुदंसण ठाम । परमारथे पि पुत्त पण, हुये कह्यो म सामि ||३५|| एम सुणी पुहता - देवलोके मिथलानयरि, वणमाला उरे जनम लह्यो नृप जयसेनघरि । पदमर्थ्य तमु नाम पत्त जोवण वय जाम, देइ राज जयसेन भूप दीक्षा ल्यें वाम । पदमरथ्य राजा थयो ए, पुप्फमाल तसु नारि । बीजो तेहथी चविय करि, तुज सुत हुआ संभारि ||३६|| एक अवसरे हय पदमरथनें अवी आणे, भमतो तेह ते तुज पुत्र देखी चित जाणे । पूर्व भव नेहे करेव सुत लेइ चाल्यो, कटक सहित निय जयर जाइ पुप्फमालह आल्यो || कर्यो महोच्छव अति घणो, वाज्या मंगल तूर । कुमर तिहां लीला करत, वाघे दिने गुण पूर ।। ३७ ।। 1 ( चोपाइ :- ) भगवन भाषे एह विचार, देखे सुर विमाण अवतार । सुत्ताहल माला मणिथंभ, महारूपे सोहे सुररंभ ||३८|| वाजे तूर सह सुविशाल, रुणझुणंत बहु घूघरमाल | चिहुँ दिसि करें अमर जयकार, सुखरताम करें अवतार || ३९ ॥ चंचल मणि कुंडल लहलहे, हार हृदय सोभा गहगहे । दिये प्रद
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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