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________________ ५० ( गोथाः-) । सेयं सुजायं सुविभत्तिसिगं, जो पासि वसहं गुहमज्जे। रिद्धि अरिद्धिं समुपेहिआणं, कलिंगराया विसमिख्ख धम्म ॥७०॥ इति श्रीकरकंडुचरितं ॥१॥ अथ द्विमुखचरितं प्रारंभः ( जंबूस्वामिगीताछंदो-ए ढाल:-) धुरि वृंदोरे सुगुरुचलण रलियामणु, हिव बोलिमरे चरित दुमुखे मुणिवरतणो। कंपिलपुररे नयर भरते जग जाणिये, तिहां नरपतिरे सदुहरिवंश, वखाणिये:-वखाणिये गुणमाल नामें तासु रमणी तेहसुं, सुख भोगवंतो एक दिवसें दूत प्रते पूछे इमुं। कहो अपर राजा राजाजोतां किसो मुझ उणो सही, तो दूत जंपे मने न कंपे नाथ ! चित्र सभा नहीं ॥७१॥ तव नरपतिरे सेवक नरपते एम भणे, लह कीजेरे सभा मंडाणे अतिघणे। धरा खणतारे पंचवन्नमणि दीपतो, सिरमंडनरे मुकुट निकल्यो दीपतो:दीपतो मूरिज दीपनी परे रायनें जइ वर कहे, वधामणी तमु प्रबल आपी राउ हियडे गहगहे । वजावि तूर करेवि ओछव भूमिथी बाहिर लीये, थोडले काले सभा मंडपे निपने राय हरषिये ॥७२॥ सुभ दिवसेंरे मुकुटसिरे आरोपियो, तव दीपेरे मगट प्रभावे दुमुख थयो । तब बेसेरे चित्र सभामाहे सोहतो, ते मुकुटेरे अचरिज जनमन मोहतो:-तसु अछे सात सुपुत्र गुणवंत रूप तेज लख्खणधरा, एक नहीं बेटी एह मोटी चित्त आरति कंधरा । अन्यदा मंजरि सुपन सुचित हूइ मदनमंजरी, नारी कला करि तनु सुसोभित रूपे जिम सुरसुंदरी ॥७३॥
SR No.032080
Book TitleJain Ras Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandra Maharaj
PublisherGokaldas Mangaldas Shah
Publication Year1930
Total Pages252
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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