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________________ तीसरी ढाल दह उसके पश्चात् वात्सल्य अंग और उसके पश्चात् प्रभावना अंगका क्रम रखा है, जिसका अर्थ यह होता है कि पहले अपनी लक्ष्मी का उपयोग धर्मसे गिरते हुए व्यक्तियों के उत्थान में करो, इसके पश्चात् यदि धन बचता है, तो अहिंसाकी रक्षा और हिंसा दूर करनेमें व्यय करो, प्राणिमात्र पर वात्सल्य भावकी वृद्धि तभी होगी । इसके भी पश्चात् यदि धन बचता है तो प्रभावनाके कार्यों में व्यय करो । यही सनातन नियम है और यही धर्मका क्रम और उसका यथार्थ रहस्य है । ऐसा जानकर हे मुमुक्षु जनो ! अपनी चंचला लक्ष्मी को स्थितिकरण में लगाकर उसे स्थिर करनेका सत्प्रयत्न करो । ७ वात्सल्य अग-धर्म और धर्मात्मा पुरुषोंसे गौ-वच्छ के समान प्रीति करनेको वात्सल्य कहते हैं । जिस प्रकार गाय बछड़े प्र ेम से खिंचकर अपने प्राणोंका भी मोह छोड़कर वछड़ेकी रक्षा के लिए सिंहके सामने चली आती है और ऐसा विचार करती है कि यदि मुझे खाकर भी सिंह मेरे बछड़े को छोड़ देवे, तो अच्छा है । ठीक उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष धर्म और धर्मात्माओं से ऐसी ही प्रीति करता है और आपत्ति के समय अपना सर्वस्व न्योछावर करके भी आपत्तिसे छुड़ा कर धर्म और धर्मात्मा के साथ वात्सल्य भावका पालन करता है । पंचाध्यायीकारने सिद्धप्रतिमा, अर्हद्विम्ब, जिनालय, चतुविध संघ और शास्त्र में सेवकके समान उत्तम सेवाके भाव रखनेको वात्सल्य कहा है। वे कहते हैं कि अविम्ब, जिन
SR No.032048
Book TitleChhahadhala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit, Hiralal Nyayatirth
PublisherB D Jain Sangh
Publication Year1951
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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