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________________ श्राद्धविषि/२६ कपास के बीज तीन वर्ष तक सचित्त रहते हैं। इस संदर्भ में बृहद्कल्प भाष्य में कहा है"कपास के बीज तीन वर्ष बाद अचित्त होते हैं, उसके बाद ही उन्हें ग्रहण करना चाहिए।" आटे की सचित्त-अचित्त-मिश्रता "नहीं छना हुआ आटा श्रावण व भाद्रपद मास में पाँच दिन तक, पासो एवं कात्तिक मास में चार दिन तक, मार्गशीर्ष और पौष मास में तीन दिन तक, माघ और फाल्गुण मास में पाँच प्रहर तक, चैत्र और वैशाख मास में चार प्रहर तक तथा जेठ और आषाढ़ मास में तीन प्रहर तक मिश्र रहता है, उसके बाद अचित्त गिना जाता है और छना हुआ आटा तो दो घड़ी बाद अचित्त हो जाता है।" शंका-अचित्त बना हुआ आटा अचित्तभोजी को कितने दिन तक कल्पता है ? उत्तर-यहाँ दिन की मर्यादा सिद्धान्त (शास्त्र) में सुनने में नहीं पाती है फिर भी द्रव्य से नये-पुराने धान्य, क्षेत्र से सरस-नीरस क्षेत्र, काल से वर्षा, शीत व गर्मी तथा भाव से जब तक उसके वर्ण, गन्ध, रस आदि विकृत न हों तब तक पक्ष, मास आदि तक और उसमें ईलिका आदि जीवों की उत्पत्ति न हो तब तक कल्पता है। साधु को आश्रय करके कल्पवृत्ति के चौथे खण्ड में इस प्रकार कहा गया है-"जिस देश में सत्तू आदि में जीवों की उत्पत्ति होती हो, उसे ग्रहण नहीं करना चाहिए । निर्वाह नहीं होता हो तो उसी दिन का किया हुअा ग्रहण करना चाहिए। फिर भी यदि निर्वाह नहीं होता हो तो दो-तीन दिन के अलग-अलग ग्रहण करने चाहिए। चार-पाँच आदि दिन के किये हुए तो सभी एक साथ ग्रहण करने चाहिए। उसकी यह विधि है रजस्त्राण को नीचे बिछाकर उसके ऊपर पात्रबन्धन (झोली) बिछाना। उसके ऊपर सत्त बिखेर कर पात्रबन्धन को दो छोर से ऊपर उठाना। उसके ऊपर जो उरणिका (जीव विशेष) लगे, उन्हें ठीकरे में रखना। इस प्रकार नौ बार करना। अगर जीव न दिखे तो वापरना। अगर दिखे तो वापस नौ बार करना। इस प्रकार यदि शुद्ध हो जाय तो वापरे अन्यथा परठ ले। निर्वाह न होता हो तो तब तक पडिलेहना करे जब तक शुद्ध न हो जाय। जहाँ अनाज का बहुत सा भूसा हो वहाँ उरणिका आदि को रखे। ऐसा स्थान न हो तो ठीकरे आदि में थोड़ा सत्तू डालकर फिर उन जीवों को डालकर उन्हें सुरक्षित स्थान में रखे, ताकि वे भी जीवित रह सकें। पक्वान्न का काल नियम पक्वान्न सम्बन्धी काल-मर्यादा इस प्रकार कही गई है "वर्षाऋतु में पक्वान्न की कालमर्यादा पन्द्रह दिन की, शीतऋतु में एक मास की और ग्रीष्मऋतु में बीस दिन की है।" कुछ प्राचार्यों का मत है कि उपर्युक्त गाथा कौनसे ग्रन्थ की है-यह निश्चय नहीं होने से जब तक पक्वान्न के वर्ण, गन्ध, रसादि नहीं बदलते हैं, तब तक वे कल्प्य हैं।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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