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________________ श्राद्धविधि / २६८ कहा है- "अन्याय द्रव्य से तैयार की गयी, दूसरों के पाषाण आदि से तैयार की गयी तथा हीन - अधिक अंग वाली प्रतिमा स्व पर की उन्नति का नाश करने वाली होती है ।" "जिस प्रतिमा के मुख, नाक, नयन, नाभि और कटिभाग का भंग हो गया हो, उस प्रतिमा का मूलनायक के रूप में त्याग करना चाहिए, परन्तु आभूषण, वस्त्र, परिवार, लांछन प्रथवा श्रायुध का भंग हुआ हो तो उसे पूजने में कोई आपत्ति नहीं है ।" "जो प्रतिमा सौ वर्ष से प्राचीन हो तथा महान् पुरुष द्वारा प्रतिष्ठित हो, वह प्रतिमा विकल अंग वाली भी हो तो भी पूजने में कोई दोष नहीं है।” बिम्ब के परिवार में पत्थर की वर्ण संकरता शुभ नहीं है, सम अंगुल प्रमाण प्रतिमाएँ कभी शुभ नहीं होती हैं । पूर्वाचार्यों का कथन है कि एक से ग्यारह अंगुल प्रमाण प्रतिमा गृहमंदिर में पूजी जा सकती है, उससे अधिक प्रमाण वाली प्रतिमा प्रासाद (जिनमन्दिर) में पूजी जानी चाहिए। निरयावली सूत्र के अनुसार लेप, पाषाण, काष्ठ, दाँत, लोहा, परिवाररहित एवं बिना प्रमाण वाली प्रतिमा घरमन्दिर में नहीं पूजनी चाहिए । गृह-प्रतिमा के आगे नैवेद्य का विस्तार नहीं करना चाहिए। परन्तु प्रतिदिन भावपूर्वक अभिषेक व त्रिसन्ध्य पूजा अवश्य करनी चाहिए । मुख्यतया जिनप्रतिमा परिकर व तिलक आदि आभूषण युक्त करानी चाहिए। उनमें विशेषकर मूलनायक की, क्योंकि उससे विशेष शोभा होती है और उसके फलस्वरूप पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है। कहा भी है - "जिनमन्दिर में रही हुई प्रतिमा लक्षणयुक्त और अलंकारयुक्त हो तो उससे ज्यों-ज्यों मन प्रसन्न होता है त्यों-त्यों निर्जरा समझनी चाहिए ।" जिनमन्दिर निर्माण व प्रभु की पूजा से अनुपम फल प्राप्त होता है । वह प्रतिमा जब तक रहती है, तब तक असंख्य काल तक भी तज्जन्य पुण्य प्राप्त होता है । जैसे- भरत चक्रवर्ती के द्वारा बनवाया गया अष्टापद का मन्दिर तथा रेवताचल पर्वत पर ब्रह्म ेन्द्र के द्वारा किया गया काञ्चनबलानक आदि मन्दिर तथा उनको प्रतिमाएँ भरत चक्रवर्ती की अंगूठी में रही हुई कुल्पाक तीर्थ की माणिक्य स्वामी की प्रतिमा तथा स्तम्भन तीर्थ की प्रतिमा प्राज भी पूजी जाती है । ग्रन्थकार ने कहा है- - " ( 1 ) जल, (2) ठंडा अन्न ( नाश्ता ), ( 3 ) भोजन, ( 4 ) मासिक आजीविका, ( 5 ) वस्त्र, ( 6 ) वर्ष की आजीविका तथा ( 7 ) जीवनपर्यन्त की आजीविका के दान से अथवा (1) सामायिक, (2) पोरिसी, एकाशन, आयंबिल, ( 3 ) उपवास, ( 4-5-6 ) अभिग्रह और व्रत से क्रमश: क्षण, एक प्रहर, एक दिन, एक मास, छह मास एक वर्ष और जीवन पर्यन्त भोगा जाय इतना पुण्य होता है, परन्तु चैत्य प्रतिमा आदि बनवाने से बहुत पुण्य होता है । लोग उसके बहुत काल तक दर्शन आदि करते हैं अतः उससे होने वाले पुण्य की मर्यादा ही नहीं है अर्थात् उससे अगणित पुण्य होता है । इसी कारण जिस शत्र ु जय तीर्थ पर पाँच करोड़ मुनियों के साथ में पुण्डरीक स्वामी ने केवलज्ञान और निर्वाण प्राप्त किया था, वहीं पर इसी चौबीसी में भरत महाराजा ने एक कोस ऊँचे और तीन गाऊ लम्बे, चौरासी मण्डपों से युक्त रत्नमय चतुर्मुख जिन प्रासाद का
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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