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________________ श्रावक जीवन-दर्शन/२२५ सागरचन्द्र श्रावक, कामदेव श्रावक, चन्द्रावतंसक राजा तथा सुदर्शनसेठ को धन्य है कि जीवित के अन्त तक भी उनकी पौषध प्रतिमा अखंड रही। सुलसा श्राविका, आनन्द व कामदेव श्रावक धन्य एवं प्रशंसा के योग्य हैं जिनके दृढ़व्रत की प्रशंसा भगवान् महावीर स्वामी ने की। इसी प्रकार सामायिक पारने के लिए भी दो बार आदेश मांगे जाते हैं। सामायिक पारते समय 'सागरचंदो' के बजाय 'सामाइय वयजुत्तो .......!' आदि का पाठ बोलना चाहिए। सामायिक व्रत से युक्त जीव जब तक मन से नियमयुक्त है तब तक तथा जितनी बार सामायिक करता है उतनी बार उसके अशुभ कर्मों का नाश होता है। "मैं छद्मस्थ एवं मूढ़ हूँ तथा मुझे जो थोड़ा कुछ याद है तथा जो याद नहीं है उसका 'मिच्छामि दुक्कडम'।" “सामायिक और पौषध में रहते हुए जीव का जो काल व्यतीत होता है, उसे सफल मानना चाहिए, शेषकाल संसार वर्धक ही है । दिन के पौषध की भी यही विधि समझनी चाहिए। सिर्फ दिन के पौषध में 'जाव दिवस' बोलना चाहिए। दिन का पोषध दैवसिक प्रतिक्रमण के बाद पारना चाहिए। रात्रि पौषध की भी यही विधि समझनी चाहिए। सिर्फ उसमें 'जाव दिवससेसं रत्ति पज्जुवासामि' बोला जाता है। रात्रि पौषध मध्याह्न के बाद और दिन की दो घड़ी शेष हो तब तक ले लेना चाहिए। पौषध पारते समय यदि साधु भगवन्त का योग हो तो अवश्य अतिथिसंविभाग व्रत करना चाहिए। इस प्रकार पौषध आदि से पर्वदिन की आराधना करनी चाहिए। इस पर धनेश्वर सेठ का दृष्टान्त है। 卐 धनेश्वर सेठ का दृष्टांत ॥ धन्यपुर नगर में धनेश्वर सेठ रहता था। उसके धनश्री नाम की पत्नी और धनसार नाम का पुत्र था। सेठ परम श्रावक था और कुटुम्ब सहित प्रत्येक पक्ष की छह पर्वतिथियों के दिन विशेष प्रकार से प्रारम्भ का त्याग करता था। तुगिका नगरी के श्रावकों का वर्णन करते हुए भगवतीसूत्र में कहा है कि वे अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा व अमावस्या इन तिथियों को पौषध करने वाले थे। इसलिए वह भी प्रतिमास छह पर्वतिथियों में विधिपूर्वक पौषध आदि करता था। एक बार वह सेठ अष्टमी के दिन पौषध में रात्रि में शून्यगृह में प्रतिमा में रहा हुआ था, तभी सौधर्मेन्द्र ने उसकी धर्मदृढ़ता की प्रशंसा की, जिसे सुनकर एक मिथ्यादृष्टि देव ने उसकी परीक्षा करने का निश्चय किया। ..... सर्वप्रथम रात्रि में उस देव ने मित्र का रूप किया और "करोड़ों सोना मोहर की निधि है, आप प्राज्ञा दो तो मैं लू-"इस प्रकार पूछा। उसके बाद पत्नी का रूप कर आलिंगन आदि द्वारा सेठ की कदर्थना की। उसके बाद रात्रि होने पर भी प्रातःकाल के सूर्योदय का दृश्य बतलाकर पत्नी, पुत्र आदि के द्वारा पोषध पारने के लिए विनंति करने का आडम्बर किया। परन्तु स्वाध्याय व जाप में लीन सेठ लेश भी भ्रमित नहीं हुआ।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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