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________________ श्राद्धविधि/२२४ ठामि' कहकर देववन्दन कर शरीर-शुद्धि कर समस्त बाह्य उपधि को देखकर जानु के ऊपर संथारा व उत्तरपट्ट को रखकर जिस ओर पैर हों उस ओर भूमि का प्रमार्जन कर धीरे-धीरे संथारा बिछायें। फिर बायें पैर से संथारे का स्पर्श कर मुहपत्ती पडिलेहन कर तीन बार 'निसीहि' बोलकर 'नमो खमासमणाणं अणुजाणह जिठ्ठज्जा' कहकर संथारे पर बैठकर नवकार के अन्तर से तीन बार 'करेमि भंते' सूत्र पढ़े। फिर "अणुजाणह परम गुरु-" इत्यादि चार गाथाएँ कहें-- उत्तम गुणरूपी रत्नों से शोभायमान शरीर वाले हे परमगुरो ! पोरिसी होने आयी है, अब मैं संथारे पर स्थापित होता हूँ ।।१।। हे भगवन् ! संथारे की मुझे आज्ञा दीजिये। बायाँ हाथ तकिये की जगह रखकर बायीं करवट पर सोऊंगा। मुर्गी की तरह पैर रखकर शयन करूंगा। अगर इस प्रकार सम्भव नहीं हुआ तो भूमि को प्रमार्जन करके पैरों को फैलाऊंगा ॥२॥ - यदि पैर सिकोड़ने पड़े तो संडासे को पौंछकर पैरों को सिकोडूगा तथा करवट बदलनी पड़ी तो शरीर का पडिलेहण करके करवट बदलूगा। शरीरचिन्ता हेतु उठना हो तो द्रव्यादि का उपयोग देना जैसे “मैं कौन हूँ" इत्यादि । इस प्रकार नींद नहीं उड़े तो श्वास रोकना चाहिए और जहाँ आकाश दिखाई देता हो वहाँ पर प्रमार्जन करते हुए जाना चाहिए ॥३॥ यदि इस रात्रि में मेरी मृत्यु हो जाये तो इस शरीर, आहार और उपधि को मैं मन, वचन काया से वोसिराता हूँ॥४॥ बाद में चत्तारि मंगलं इत्यादि भावनाएँ कर रजोहरण (चरवला) आदि से शरीर का व संथारे का प्रमार्जन कर बायीं करवट पर सोये । यदि शरीरचिन्ता के लिए जाना पड़े तो संथारा दूसरे को संभलाकर 'आवस्सही' कहकर पहले देखी हुई शुद्धभूमि में कायचिन्ता करे। फिर ईरियावहिय कर गमनागमन की आलोचना कर जघन्य से तीन गाथाओं का स्वाध्याय कर नवकार का स्मरण कर पूर्व की तरह सो जाय । रात्रि के अन्तिम प्रहर में जगने पर 'इरियावहिय' कर 'कुसुमिण-दुसुमिरण' का कायोत्सर्ग व चैत्यवन्दन करके प्राचार्य आदि को वन्दन कर प्रतिक्रमण के समय तक स्वाध्याय करे । फिर पूर्व की प्रतिक्रमण आदि कर मांडली में स्वाध्याय कर यदि पौषध पारने की इच्छा हो तो खमासमण देकर आदेशपूर्वक मुहपत्ती का पडिलेहन करे। फिर पुनः दो खमासमण देकर पौषध पारने के लिए 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पोसहं पारउं?' तथा 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! पोसहं पारिउ' इस प्रकार दो आदेश मांगे। प्रथम आदेश मांगने पर गुरु--"पुणो वि कायव्वं" (वापस करना चाहिए) तथा दूसरी बार आदेश मांगने पर गुरु-प्रायारो न मुत्तव्वो (आचार छोड़ने जैसा नहीं है) कहते हैं। फिर खड़े होकर नवकार गिनकर बाद में घुटने के बल बैठकर भूमि पर मस्तक लगाकर “सागर-चंदो कामो.............।' आदि का पाठ बोलना चाहिए।
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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