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________________ श्राद्धविधि/१६४ वस्था प्राप्त होने पर भी उसकी शादी नहीं हुई। आखिर लज्जा से धन कमाने के लिए वह घर छोड़कर चला गया। खनन-विधि, धातुवाद, रस, मंत्र, जलस्थल-यात्रा, अनेक प्रकार के व्यापार तथा राजा आदि की सेवा करने पर भी जब उसे धन की प्राप्ति नहीं हुई तब वह अत्यन्त उद्विग्न बना गजपुर नगर में आया और वहाँ बिराजमान केवली भगवन्त से उसने अपना पूर्व भव पूछा। केवली भगवन्त ने कहा-"विजयपुर नगर में गंगदत्त नाम का गृहपति था। वह अत्यन्त ही कृपण और मत्सरी था। दूसरे के दान व लाभ में अन्तराय करता था। एक बार सुन्दर नाम का श्रावक उसे किसी मूनि भगवन्त के पास ले गया। मुनि के उपदेश से उसने कुछ भाव से कुछ दाक्षिण्य से प्रतिदिन प्रभु-पूजा, चैत्यवन्दन आदि करने का नियम लिया। कृपणतादि के कारण पूजा आदि में शिथिल बन कर उसने चैत्यवन्दन के अभिग्रह का पालन किया। उस पुण्य से ही तुम श्रेष्ठिपुत्र बने हो और मुझे मिले हो। पूर्वभव में किये दुष्कृत के कारण ही तुम निर्धन और दुःखी हुए हो। कहा है-"जो कर्म जिस प्रकार बाँधा जाता है, उसे उसी तरह हजार गुणा भी भोगा जाता है, इस प्रकार जानकर यथोचित कर्म करना चाहिए।" केवली भगवन्त के उपदेश को सुनकर उसने प्रतिबोध पाया और गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया, और दिन और रात्रि के प्रथम प्रहर में धर्म ही करने का उसने अभिग्रह धारण किया। · वह एक श्रावक के घर ठहरा। प्रातःकाल में माली के साथ बगीचे में फूलों को इकट्ठा कर गृह-चैत्य में अरिहन्त की भक्ति करने लगा। दूसरे प्रहर में व्यवहार-शुद्धि द्वारा देश आदि विरुद्ध का त्याग कर औचित्य पालन आदि विधि से व्यवहार करने लगा, जिससे बिना कष्ट से उसके भोजनादि का निर्वाह होने लगा। ___इस प्रकार वह ज्यों-ज्यों धर्म में स्थिर रहने लगा, त्यों-त्यों वह अधिक धन कमाने लगा और व्यय भी करने लगा। क्रमशः अलग घर में रहने लगा और धार्मिक वत्ति वाला होने से किसी सेठ की कन्या के साथ उसका विवाह भी हो गया। एक बार जब गायों का समूह वन की ओर जा रहा था तब वह गुड़-तैल आदि वस्तुएँ बेचने के लिए जा रहा था। उस समय गोकुल का मालिक अंगारे की बुद्धि से स्वर्ण निधि को छोड़ रहा था। उसे देखकर वह बोला-"अरे! यह स्वर्ण क्यों फेंक रहे हो ?" उसने कहा-"पहले भी हमारे पिता ने स्वर्ण कहकर हमें ठगा था और आज तुम भी हमें ठगना चाहते हो।" धनमित्र ने कहा--"मैं तो झूठ नहीं बोलता हूँ।" उसने कहा-"अच्छा, तो गुड़ आदि देकर तुम ही ले लो।" धनमित्र ने वैसा ही किया। इस प्रकार करने से उसे तीस हजार सोना मोहर प्राप्त हुई। दूसरा भी धन मिलने से वह धनवान बना। अहो, एक भव में भी धर्म का कितना अधिक महत्त्व है। एक बार वह सुमित्र नाम के सेठ के घर अकेला ही गया। उसी समय कोटि मूल्य के रत्न का हार, बाहर ही रखकर किसी कार्यवश सुमित्र अपने घर में गया। लौटने पर उसने वह हार नहीं
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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