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________________ श्रावक जीवन-दर्शन / १९५ देखा । अन्य जगह पर भी हार नहीं मिलने से सुमित्र ने धनमित्र पर आरोप लगाया और बोला"यह हार तुमने ही लिया है।" इस प्रकार कहकर न्याय के लिए उसे राजसभा में ले गया । मित्र ने दिव्य के पूर्व जिनपूजा और समकित दृष्टि देवता का कायोत्सर्ग किया । उसी समय सुमित्र को अंटी में से वह हार निकला। सभी को आश्चर्य हुआ । किसी ज्ञानी गुरु भगवन्त को पूछने पर उन्होंने कहा - "गंगदत्त नाम का गृहपति था । उसके मगधा नाम की पत्नी थी । एक बार गंगदत्त ने अपने सेठ को पत्नी के पास से गुप्त रोति से एक लाख को कीमत का रत्न ले लिया । सेठानी ने बहुत बार मांगा परन्तु पत्नी के मोह से गंगदत्त ने कहा – “तुम्हारे स्वजनों ने ही लिया है" इस प्रकार कहकर झूठा आरोप लगाया । इससे वह नाराज होकर तापसी बन गयी । वह मरकर व्यन्तर बनी । मगधा मरकर सुमित्र बना और गंगदत्त मरकर धनमित्र बना । उस व्यन्तर ने ही कुपित होकर सुमित्र के आठ पुत्रों को मार डाला और अभी रत्नावली का अपहरण किया । आज भी वह सर्वस्व अपहरण करेगा । अनेक भवों तक वह वैर का बदला लेगा । अहो ! कलंक का परिणाम कितना भयंकर ? आरोप लगाने से धनमित्र पर भी आरोप लगा। उसी समय पुण्य से प्राकृष्ट सम्यग्दष्टि देव ने व्यन्तर के पास से वह रत्नावली खींचकर उसे वापस प्रदान की ।" यह बात सुनकर राजा और धनमित्र को वैराग्य पैदा हुआ। राजा ने अपने पद पर अपने पुत्र को स्थापित कर धनमित्र के साथ दीक्षा स्वीकार की और अन्त में वे दोनों मोक्ष गये । 5 मध्याह्न पूजा व सुपात्र दान फ सुश्रावक मध्याह्न के समय में पूर्वोक्त विधि से तथा विशेष तौर से श्रेष्ठ चावल आदि से तैयार को गयो रसोई की सामग्री को दूसरी बार की जिनपूजा में प्रभुसमक्ष चढ़ाकर और सुपात्र में दान देकर भोजन करता है । मध्याह्न जिनपूजा व भोजन का निश्चित काल-नियम नहीं है । वास्तव में, भूख का समय हो भोजन का समय है । इस नियम के अनुसार मध्याह्न के पूर्व भी ग्रहरण किये गये पच्चक्खाण को पारकर प्रभुपूजा पूर्वक भोजन करने में कोई दोष नहीं है । आयुर्वेद में तो इस प्रकार कहा है – “पहले प्रहर में भोजन न करें और भोजन में दूसरे प्रहर का उल्लंघन न करें। पहले प्रहर में रस की उत्पत्ति होती है और दो प्रहर के बाद भोजन करने से बल का क्ष होता है । * सुपात्र -दान विधि * भोजन का समय होने पर भक्तिपूर्वक साधु भगवन्तों को निमन्त्रण देकर उनके साथ घर आना चाहिए । अथवा स्वयं ही आते हुए मुनियों को देखकर उनके सम्मुख जाना चाहिए । उसके बाद विनयपूर्वक ( 1 ) यह क्षेत्र संविग्न से भावित है या नहीं ? ( 2 ) सुकाल है या दुष्काल ? ( 3 ) देयवस्तु सुलभ है या दुर्लभ है ? ( 4 ) आचार्य, उपाध्याय, गीतार्थ, तपस्वी, बाल, वृद्ध, ग्लान, भूख को सहन कर सके ऐसे, तथा भूख को सहन न कर सके ऐसे मुनियों की अपेक्षाओं इत्यादि का विचार कर स्पर्धा, महत्त्व, मत्सर, स्नेह, लज्जा, भय, दाक्षिण्य, अनुकरण, प्रत्युपकार की इच्छा, माया, विलम्ब, अनादर, अनुचित वचन और पश्चाताप आदि दान के दोषों का त्याग कर एकान्त से आत्मा के अनुग्रह की बुद्धि से भिक्षा के बयालीस दोषों से बचते हुए अपने अन्न, पान, वस्त्र आदि का दान करना चाहिए । दान में सर्वप्रथम भोजन आदि के क्रम से स्वयं दान
SR No.032039
Book TitleShravak Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasensuri
PublisherMehta Rikhabdas Amichandji
Publication Year2012
Total Pages382
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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